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________________ पञ्चदशः सर्गः १७१ १४३. वीराक्षेपपवं विलोक्य मुनि श्रीमारिमालोऽवद देत वाक् परिवर्तयाऽतिकठिनं स्वाम्याह तं शान्तितः। . सत्यं वा किमसत्यमुत्तरमिदं तथ्ये न शङ्का मनाक, तहि स्तान्नयमार्गचालकनरैः कार्या न लोकंषणा ॥ आचार्य भिक्षु ने एक पद्य लिखा____ 'छह लेश्या हंति जद वीर में, हंता आळं ही कर्म । छद्मस्थ चूक्या तिण समे, मूरख माने धर्म ।' 'भगवान् महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में थे तब उनमें छहों लेश्याएं और आठों कर्म विद्यमान थे। उस समय उन्होंने एक प्रसंग पर लब्धि का प्रयोग किया । यह उनकी भूल थी। परन्तु अजानकार व्यक्ति उसमें भी धर्म मानते हैं।' इस गाथा को देखकर आचार्य भिक्ष के उत्तराधिकारी मुनि भारमलजी ने कहा-'आचार्यदेव ! यह पद्य अत्यन्त कठोर है, इसे आप बदल दें।' स्वामीजी ने शांतिपूर्वक पूछा- 'बताओ, यह पद्य सत्य है या असत्य ?' भारमलजी बोले-'गुरुदेव ! है तो सत्य, पर है कठोर ।' तब स्वामीजी बोले-यदि सत्य है तो इसे ऐसा ही रहने दो। न्यायमार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को सत्य की एषणा करनी चाहिए, लोकषणा में नहीं फंसना चाहिए। १४४. हीरेणाऽतिविलोमबुद्धिविहितः प्रश्नस्तदा स्वामिना, वतं. नैव तदुत्तरं विनयते प्रत्युत्तरार्थ पुनः। . औचित्येन विचक्षणरभिहितोऽमध्ये झमत्रे घृतमाऽऽदात्रा बहुयाचितेऽपि पटुना कि क्षिप्यते पश्यता ॥ __ एक बार हीरविजयजी यति आचार्य भिक्षु के पास आए और विपरीत बुद्धि से अनेक अंट-संट प्रश्न करने लगे। स्वामीजी ने. उनका उत्तर नहीं दिया । यतीजी ने प्रश्न का उत्तर देने के लिए पुनः प्रार्थना की। तब विचक्षण आचार्य भिक्षु ने औचित्यपूर्वक कहा-क्या मल से भरे बर्तन में, बहुत याचना करने पर भी, मल को स्पष्ट देखने वाला दाता उसमें घी डालेगा? कभी नहीं।' १. भिदृ० १७८ । २. वही, २२३ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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