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पञ्चदशः सर्गः
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१३२. केनाऽवाचि भवान् यतेत यदि तद् बोदधुं प्रयोग्या भुवि,
भूयांसो भविनस्तथा प्रकथकं तं भिक्षुराख्यत् तथा । लोष्टूनि प्रतिमोपमानि भवितुं खानी परं भूरिशस्तावन्तो नहि शिल्पिनस्तदिव नो सम्बोधकास्तन्मिताः॥
किसी ने कहा-आप उद्यम करें तो संसार में ऐसे अनेक सुलभबोधि जीव हैं जो समझ सकते हैं ।' स्वामीजी बोले-मकराणा के खान के पत्थर में प्रतिमा होने की क्षमता तो है, पर हर पत्थर को प्रतिमा बनाने के लिए जितने कारीगर चाहिए उतने नहीं हैं। इसी प्रकार समझ सकने वाले तो बहुत हैं पर उतने समझाने वाले नहीं हैं ।"
१३३. औत्सुक्यात् प्रणिपत्य कोऽपि मुनिपं प्रोचे च मां श्रावय,
धर्म मङ्गलमाशु तं प्रशमतः स्वाम्याह सम्मोदवान् । अङ्ग पञ्चममुत्तमं भगवती या वाच्यमानाऽधुना, ब्रह्येषा किममङ्गलं तदपि स ब्रूते तदर्थ पुनः॥
१३४. प्रत्यूने तमृषिर्जगच्छकुनवच्छोतुं तवेच्छा तदा,
वाञ्छा तच्छ्वणप्रयोजनमिदं व्याख्यायते तच्छृणु । योगान् संपरिवत्तितुं शुभतया कर्मीघनाशाय च, स्मर्तुं ध्यातुमनन्तरं सुकृतये श्रव्यं हि तन्मङ्गलम् ॥ (युग्मम्)
एक व्यक्ति उत्सुकतापूर्वक आचार्स भिक्षु के पास आया, वंदन कर बोला--'महाराज ! मुझे 'धम्मो मंगल' सुनाइए।' आचार्य भिक्षु ने प्रसन्नतापूर्वक शांतभाव से उस व्यक्ति से कहा - मैं अभी पांचवां अंग भगवती सूत्र का वाचन कर रहा हूं। तुम उसे सुनो । क्या वह अमंगल है ?' इतना कहने पर भी वह व्यक्ति 'धम्मो मंगल' सुनाने का आग्रह करने लगा। तब उसे स्वामीजी ने कहा- जैसे लोग ग्रामान्तर जाते हुए शकुन लेते हैं, वैसे ही यदि तुम 'धम्मो मंगल' सुनना चाहते हो तो वह इच्छा इच्छा नहीं है। मंगल सुनने का प्रयोजन यह है कि योगों का शुभ में परिवर्तन हो तथा कर्मों की निर्जरा हो । यथार्थ में निर्जरा के लिए स्मरण, चिंतन करना ही मंगल सुनने का प्रयोजन है।'
१. भिदृ० १५८ । २. वही, १५२ ।