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________________ १६० धीभिक्षुमहाकाव्यम् ११४. धीरः प्रत्यवदत् तदेज्य च तथा शिक्ष्या निजास्तितः, तद्वत् स्युः स तमाह मूर्ष! तनुयादित्यं हि किं त्वं शृणु । धीरः प्रत्यगदत् प्रशंसयति किं तेनाध्वना तास्तदा, सत्या भिक्षुगिरो भवन्ति सुतरां व्ययं हि किं व्यज्यते ॥ (युग्मम्) जेतारण में धीरज पोकरणा रहता था। मुनि टोडरमलजी ने उससे कहा-भीखणजी कहते हैं कि थोड़े दोष से साधुपन टूट जाता है । यदि इस प्रकार साधुपन टूट जाए तो पार्श्वनाथ की साध्वियां हाथ-पैर धोती थीं, आंखों में अञ्जन आंजती थीं, बालकों को खेल खेलाती थीं, वे भी मरकर इन्द्राणियां हुई और एकावतारी हुई । तब धीरजी पोकरणा ने कहापूज्यजी! आप अपनी साध्वियों से वैसा ही करवाएं । आंखों में अञ्जन आंजने, हाथ-पैर धोने और बालकों को खेलाने की अनुमति दें, जिससे वे भी एकावतरी हो जाएं। तब मुनि टोडरमलजी ने कहा-रे मूर्ख ! हम ऐसा काम क्यों करेंगे ? तब धीरजी बोला-यदि आप ऐसा काम नहीं करते हैं तो उनकी सराहना क्यों करते हैं ? इस प्रकार आचार्य भिक्षु की वाणी सदा सत्य होती। ११५. दुर्लक्ष्यो बहुराग एष जगता द्वेषः सुलक्ष्यः सदा, निन्धो मारद ईहितार्पक इलाश्लाघ्यः शिशुः स्थूलतः। पीडा किं श्रमणस्य मूर्धनि दृषत् क्षिप्ता न किं वा पतेद्, वेषिभ्यः कियदन्तरं प्रतिवचोऽकारस्य चैकस्य वै॥ (क) राग-द्वेष की पहिचान करने के लिए स्वामीजी ने दृष्टांत दिया-कोई बच्चे के सिर पर मारता है, तब लोग उसे उलाहना देते हैंभले आदमी ! बच्चे के सिर पर क्यों मारता है ? और किसी ने बच्चे को लड्डु दिया उसे कोई नहीं बरजता । राग को पहिचानना कठिन है और द्वेष को पहिचानना सरल है। (ख) किसी ने पूछा-महाराज ! साधुओं के बीमारी क्यों आती है ? स्वामीजी बोले-किसी आदमी ने पत्थर को आकाश की ओर उछाला, शिर उसके नीचे कर दिया, भविष्य में पत्थर उछालने का परित्याग किया, किन्तु पहले जो पत्थर उछाला है उसकी चोट तो लगेगी ही। फिर पत्थर नहीं उछालेगा तो चोट नहीं लगेगी । ऐसे ही पाप कर्म का बन्ध किया उसको तो भुगतना ही पड़ेगा । बाद में पाप का परित्याग कर लिया तो उसे दुःख नहीं भुगतना पड़ेगा। १. भि. ३११ । २. वही, ६। ३. वही, १२२ !
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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