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________________ ११८ श्री मिनु महाकाव्यम् ११०. केचित् कारणतो ह्यशुद्धददने व्याचक्षते ये श्लथाः, स्वल्पांहो बहुनिर्जरां च मुनिराट् स्पष्टं तदोदाहरत् । कश्चित् क्षत्रियनन्दनो रणमुखाद् भीतो विपक्षैः पलायेतात्मीयमपोह्य धैर्यममलं शूरः स कि गण्यते ॥ कुछ कहते हैं - रोग आदि कारण की स्थिति में साधु को अशुद्ध आहार ले लेना चाहिए और उस स्थिति में आहार देने वाले श्रावक को पाप अल्प होता है, निर्जरा ज्यादा होती है । तब स्वामीजी बोले – राजपूत का बेटा संग्राम करते-करते भयभीत होकर भाग जाता है तो उसे शूर कैसे कहा जाए ? उसे राजा जागिरदारी कैसे भोगने देगा ? लौकिक वातावरण में उसकी प्रतिष्ठा कैसे सुरक्षित रहेगी ? वह सबमें अपमानित होता है । इसी प्रकार जो भगवान के साधु कहलाते हैं और विशेष कारण की स्थिति में अशुद्ध आहार देने पर अल्प पाप और बहु निर्जरा बतलाते हैं, अशुद्ध आहार देने की स्थापना करते हैं, वे इहलोक और परलोक में दुःखी होते हैं । ' ११. सनिन्दां विरचय्य कुत्सितमतिस्तिष्ठेत् पृथक् निन्दक स्तत्राख्यद् वसथागतागतान्यपृतनाद्रव्याविसंदर्शकः । क्षिप्तः प्राह खलो ह्यदर्शय महं तत् कि नहीदं त्विदमित्थं रोषमदर्शयत् खलु यथा यो वा तथैवात्र सः ॥ कोई साधुओं की निन्दा करता है और अपनी चालाकी के कारण लोगों के सामने अपने आप को प्रकट नहीं होने देता, उस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया- किसी गांव में एक चुगलखोर रहता था। एक बार उस गांव में फौजी आए । उसने उन्हें लोगों के धन-धान्य की जानकारी दे दी। कुछ फौजी चले गए और कुछ वहीं ठहर गए। गांव के लोग बाहर भाग गए । कुछ लोग वापस आ गए। लोगों ने सुना कि चुगलखोर ने फौजियों को धनधान्य के बारे में जानकारी दी है। उन्होंने चुगलखोर को उलहना दियाअरे, तूने ऐसा काम किया । तब वह फोजियों को सुना कर बोला- यदि मैं फोजियों को जानकारी देता तो अमुक का धन वहां गड़ा हुआ है और अमुक कान वहां गडा हुआ यह सब बता देता । इस प्रकार चालाकी से उसने जो बाकी थे उनके धन की भी जानकारी दे दी। इसी प्रकार जो निन्दक चालाक होता है वह निन्दा करता हुआ भी झूठ बोलकर अपने आपको निंदा से अलग रख लेता है --निन्दक के रूप में प्रकट होने नहीं देता ।' १. भिवृ० २३३ । २. वही, १४४ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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