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________________ १५० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १०२. सच्छुडानमृते किलानुकरणप्रह्वा न ते शोमनाः, . स्पर्द्धाभिनं हि साधवः कथमपि स्युस्यितां यान्ति ते । देपालाभिधमोजकप्रतिनिमास्ते धेनुविट्कीलवत्, । मत्येज्या यदि वेह कृत्रिमतमा दोला प्ररूढा यथा ॥ सच्चे श्रद्धान के बिना केवल अनुकरण करने वाले प्रशंसनीय नहीं होते । साधुओं की केवल स्पर्दा (नकल) करने मात्र से कोई साधु नहीं बन जाता । प्रत्युत वह उपहास का पात्र बनता है। जैसे 'देपाला' नामक भोजक ने साधु का वेश पहना और वह गोबर के कीले के साथी व्यक्तियों द्वारा पूजा गया । इसी प्रकार केवल अनुकरण करने वाले यथार्थशून्य बनावटी पालखी में आरूढ़ व्यक्ति के समान प्रतिभासित होते हैं। पूरा कथानक इस प्रकार है (क) जोधपुर राज्य के किसी एक गांव में 'देपाला' नामक भोजक रहता था। वह बातुनी एवं नकलची था । एक बार दुष्काल के समय को काटने के लिए वह अपने दोनों पुत्रों सहित साधुवेश धारण कर 'थल' की ओर चल पड़ा । थल के किसी एक बड़े गांव में उनका भव्य स्वागत हुआ एवं चातुर्मास की प्रार्थना भी हुई । अतः वहीं पर चातुर्मास कर दिया । अब व्याख्यान की चर्चा चली। लोगों से पूछा-कौनसा सूत्र बांचे । भाईयों ने कहा-'महाराज ! आप जैसे ज्ञानी कम मिलेंगे और हमारे जैसे श्रोता भी कम मिलेंगे, अत: सबसे बड़ा सूत्र जो हो वही फरमाने की कृपा करें।' तथाकथित मुनि ने कहा-'भाई ! सबसे बड़ा सूत्र तो भगवती है, एवं बड़े सूत्र की अस्वाध्याय भी बड़ी होती है । अगर व्याख्यान में किसी को छींक, खांसी व हंसी एवं जम्भाई भी आ जायेगी तो चातुर्मास भर के लिए तीनों ही वक्त के व्याख्यानों की अस्वाध्याय हो जायेगी । लोगों ने कहा-कोई बात नहीं, आप किसी भी प्रकार की चिंता न करें, हम पूरा-पूरा ख्याल रखेगें एवं किसी भी प्रकार का अस्वाध्याय न होने देंगे । आसाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को व्याख्यान के प्रारंभ का शुभ मुहूं त्त था। चतुर्दशी के दिन गांव के प्रायः सारे श्रद्धालु भाई-बहिनों एवं बच्चों से उपाश्रय खचाखच भर गया । नकली मुनिपति ने व्याख्यान के प्रारम्भ में इस ढंग से नवकार मन्त्र का उच्चारण किया कि सारी परिषद् खिल खिलकर हंस पड़ी। ऐसा होते ही मुनि महाराज ने अपने पन्नों को जमीन पर गिराते हुए कहा, कितना समझाया पा तुम लोगों को, पर कुछ भी नहीं समझते हो । यह लो, भगवती सूत्र की अस्वाध्याय हो गयी । भगवती सूत्र का क्या तीनों ही समय के व्याख्यानों का अस्वाध्याय हो गया । बिना व्याख्यानादि के हम लोग समय कैसे पूरा करेंगे? यह विचारणीय है । खैर ! जो होना था सो हो गया। अब तो तुम लोग ऐसे ही सन्त सेवा एवं धर्मध्यान का लाभ लेते रहो । इसके सिवाय और
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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