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________________ १४८ श्रीभिनुमहाकाव्यम् भीखनजी जा रहे थे । एक व्यक्ति ने नाम पूछा । भीखन नाम सुनते ही वह बोला-ओह ! अनर्थ हो गया। आज मैंने तुम्हारा मुंह देख लिया । जो मनुष्य तुम्हारा मुंह देखता है, वह नरक में जाता है।' स्वामीजी ने मुस्करा कर पूछा-'तुम्हारा मुंह देखने वाला कहां जाता है ?' वह बोला'स्वर्ग में जाता है ।' तब स्वामीजी बोले-हम तो ऐसा नहीं मानते, किन्तु तुम्हारे कथनानुसार मैं स्वर्ग में जाऊंगा, क्योंकि मैंने तुम्हारा मुंह देखा है और तुम नरक में जाओगे, क्योंकि तुमने मेरा मुंह देखा है।' यह सुनकर वह प्रश्नकर्ता लज्जित होकर चला गया।' ९८. श्रीवैयाकरणज्ञ एत्य च परर्युद्ग्राहितः स्वामिनं, प्राह व्याकरणं त्वया ननु किमभ्यस्तं न नीतोत्तरः। उद्दण्डत्वमगाद् भृशं मुनिवरैः पृष्टोऽतिलज्जाकुलः, पाण्डित्यं प्रवरं सदा ह्यनुभवप्राप्तं प्रकृत्यागतम् ।। ' विरोधियों के द्वारा बहकाये हुए एक वैयाकरण पंडित आचार्य भिक्षु के पास आकर बोले -'मुनिजी ! क्या आपने व्याकरण पढा है, अभ्यास किया है ?' स्वामीजी बोले-पंडितजी! मैंने व्याकरण नहीं पढ़ा।' यह सुनकर अत्यंत गर्वोन्मत्त होकर वे बोले-'व्याकरण के बिना आगमों का सही अर्थ नहीं किया जा सकता।' स्वामीजी बोले-आपने तो व्याकरण का खूब अभ्यास किया है। आप इस आगम वाक्य का अर्थ बताएं-'कयरे मग्गमक्खाया।' पंडितजी उसका सम्यक् अर्थ नहीं बता सके। उन्होंने इसका अर्थ किया-कैर और मूंग अखंड नहीं खाने चाहिए। स्वामीजी ने उसका सही अर्थ बताते हुए कहा-भगवान् ने मोक्ष के कितने मार्ग बतलाए हैं ? यह अर्थ सुनकर पंडितजी अत्यंत लज्जित हुए । इससे यह फलित होता है कि जो पांडित्य स्वभावगत तथा अनुभव से प्राप्त है वही श्रेष्ठ होता है, केवल पुस्कीय पांडित्य कारगर नहीं होता। ९९. जामाता सरलोऽति मे कथमहो यत् मिप्यते भुज्यते, ब्रूते नो परिवेष्यते किमवदत् संयावकाद्यं सदा। ब्रूयात् किं स तदा कदापि तहिनान्नं चाप्य संवीक्ष्यतां, चेतोभावितगोचररनुदिनं वृद्ध ! न के रञ्जिताः ॥ किसी बुढ़िया ने स्वामीजी से कहा-'महाराज! मेरा जामाता . बहुत ही सीधा-साधा और सरल है । स्वामीजी ने पूछा-कैसे ? वृद्धा बहिन बोली-महाराज ! में जो कुछ भी परोमती हूं, वह बिना ननुनच किए खा १. भिदृ० १५ । २. वही, २१८ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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