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________________ १४२ श्रीमिलमहाकाव्यम् उसने सोचा-साहूकार ने मेरे पर बहुत उपकार किया है। अब चोर ने अपने घर जाकर चोरों के सगे संबंधियों को सारे समाचार सुनाए। वे सारी बातें सुन बहुत रुष्ट हुए। वह चोर उन्हें साथ ले आया। शहर के दरवाजे पर एक पत्र टांग दिया। उसमें लिखा था-नौ चोरों को मारा गया है, उनका प्रतिशोध लेने के लिए नौ के ग्यारह गुना-९९ व्यक्तिों को मारने के बाद समझौता कर लूंगा। साहूकार को नहीं मारूंगा। साहूकार के बेटे, पोते और सगे सम्बन्धियों को भी नहीं मारूंगा। इस सूचना के बाद वह मनुष्यों को मारने लगा। किसी के बेटे को मारा, किसी के भाई को मारा, किसी के पिता को मारा। नगर में हाहाकार हो गया। नगरी के लोग साहूकार की निन्दा करने लगे। उसके घर जाकर रोने लगे-रे पापी ! यदि तुम्हारे घर में धन अधिक था तो उसे तुमने कुएं में क्यों नहीं डाला ? तुमने चोर को छुड़ा हमारे परिवार के लोगों को मरवा दिया। साहूकार उद्विग्न हो गया। वह शहर को छोड़ दूसरे गांव में जाकर बस गया। बहुत दुःखी हुआ। जो लोग उसके गुण गाते थे वे ही उसके अवगुण गाने लगे। संसार का उपकार ऐसा होता है। मोक्ष का उपकार करने वाला महान होता है। उसमें कोई खतरा नहीं है।' ८७. कान्ते कालकटाक्षितेऽतिरुदती लोकाः प्रशंसन्ति तां, प्रत्याख्यानवशात् परामरुदती निन्दन्ति तत्त्वच्युताः। तस्माल्लोकशुभाशुभाभिहिततो रम्यं शरम्यं नहि, रम्याऽरम्यविनिर्णयो भवति वै श्रीवीतरागोक्तितः ॥ संसार और मोक्ष के मार्ग की भिन्नता का बोध देने के लिए स्वामीजी ने कहा-एक साहूकार के दो स्त्रियां थीं। एक ने रोने का त्याग कर दिया। वह धर्म के रहस्य को जानती थी। दूसरी धर्म के मर्म को नहीं समझती थी। कुछ समय बाद उनका पति परदेश में काल कर गया। जो स्त्री धर्म के मर्म को नहीं समझती थी, वह पति के देहावसान का सामाचार सुन कर रोती है, विलाप करती है और जो स्त्री धर्म के मर्म को समझती है, वह आंसू नहीं बहाती, किन्तु समता धार कर बैठी है। अनेक स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुए । वे सब रोने वाली की प्रशंसा करते हैं-'यह धन्य है, पतिव्रता है।' जो नहीं रोती उसकी निन्दा करते हैं-'यह पापिनी तो चाहती थी कि पति मर जाए । इसकी आंखों में आंसू भी नहीं हैं।' इसलिए लोगों द्वारा किसी प्रवृत्ति को शुभ या अशुभ कह देने मात्र १. भिदृ, १४०।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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