SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशः सर्गः लगे । स्वामीजी ने कहा-- झगड़ा मत करो। इन्हें रोको मत, क्योंकि..के प्रतिमा को भगवान मानते हैं। ये या तो भगवान के समक्ष गाना-बजाना करते हैं या भगवान के साधुओं के समक्ष। तब बावेचा लोग बोले-भीखणजी हर बात को सम्यग्दृष्टि से ग्रहण कर लेते हैं । ऐसा कहते हुए वे आगे बढ़ गए। ४९. नग्नाऽनग्ननराः कतीह सुभिषग् ! ब्रूते गताक्षं तवा क्ष्युन्मेषं विदधे निभालय ततस्त्वं चैव तद्वद् वयम् । चिह्नज्ञानविधापकाः सदसतोः साधूनसाधूंस्ततः, त्वं भो ! विद्धि तथा स्वयं नु कमहं संतं ह्यसंतं वदे ॥ किसी ने भिक्षु से पूछा-'इतने संप्रदाय हैं। इनमें साधु कौन और असाधु कौन ?' स्वामीजी बोले-'किसी को आंखों से दिखाई नहीं देता था। उसने वैद्य से पूछा-शहर में नंगे कितने हैं और वस्त्र पहने कितने हैं ?' वैद्य बोला-'आंखों में दवा डालकर तुम्हारी दृष्टि मैं लौटा दूंगा, फिर तुम्ही देख लेना कितने नंगे हैं और कितने वस्त्र पहने हैं।' भिक्षु बोले - इसी प्रकार पहचान तो हम बतला देते हैं, फिर साधु कौन और असाधु कोन इसका निर्णय तुम स्वयं कर लेना। किसी का भी नाम लेकर असाधु कहने से वह झगड़ा करने लग जाता है। इसे ध्यान में रखकर साधु-असाधु के लक्षण तो हम बता देंगे, उनका मूल्यांकन तुम कर लेना। ५०. निन्दामेव करोति भिक्षुरिह नस्तानाह कश्चित् पिता, पुत्रं शिक्षयते निजापणगतः सत्साधुकार्य त्वया। रक्यं पृच्छति किं ह्यरक्षणतयाऽवक् स प्रतीपस्ततः: श्रुत्वा ताद्गऽवक् परो ननु ममाऽसौ निन्दकस्ते तथा ॥ 'साधु का आचार बताया जाता है, उसे कुछ शिथिल आचार वाले निंदा मानते हैं'-इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया- एक साहूकार ने अपने. बेटे को शिक्षा देते हुए कहा-'जिससे उधार ले, उसकी राशि लौटा देनी चाहिए । न लौटाने वाले को लोग दिवालिया कहते हैं ।' उसका पड़ोसी दिवालिया था। वह यह सुनकर जलभन जाता है। वह कहता है-यह . बेटे को शिक्षा नहीं दे रहा है, मेरी छाती को जला रहा है । इसी प्रकार कोई साधु का आचार बतलाता है, उसे सुनकर वेषधारी साधु जलभुन जाता है और कहता है-यह मेरी निंदा कर रहा है।' १. भिदृ० ९५। २. वही, ९९। ३. वही, ६० ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy