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________________ ११४ গীপিকা और वेग से चलकर, वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस नौली वाले सेठ को लूट लिया। सेठ ने मन ही मन सोचा, जिसने इस चोर को सहयोग दिया है वह मेरा परम शत्रु है । शत्रु का सहायक भी निश्चितरूप से शत्रु ही गिना जाता है। : : इस प्रकार असंयती प्राणी का जीवन धन, वध और आरंभ के आश्रित होता है । इसीलिए हे प्रच्छक ! संसार के सभी प्राणी षट्जीवनिकाय के शत्रु हैं । उनका साक्षात् या असाक्षात् पोषण धर्म कैसे हो सकता ४२. क्षान्तिःप्राक् विजयेन भिक्षुमुनिना निक्षेपचर्चा कृता, रुष्टः प्राह पराजितो मुनिमदः श्यालस्य शीर्ष ध्रुवम् । छत्स्ये तं मुदितोऽववन् मम समा नार्यो भगिन्यः स्वतः, श्यालः स्यां परमुत्तमाङ्गलवनाऽऽकारोऽस्ति किं मे वद ॥ एक बार संवेगी मुनि क्षांतिविजयजी ने आचार्य भिक्षु से कहा'मैं आपसे निक्षेप विषय पर चर्चा करना चाहता हूं।' स्वामीजी ने चर्चा प्रारंभ की। भाव निक्षेप पर दोनों एकमत थे । नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप के विषय में चर्चाएं चलीं। एक अन्य प्रसंग में मुनिजी रुष्ट होकर भिक्षु से बोले-साले का शिर काट डालूंगा । तब भिक्ष ने मुस्कराते हुए कहा, संसार की समस्त स्त्रियां मेरी बहिनें हैं, अतः आपने विवाह किया है तो मैं आपका साला हूं। परंतु एक बात स्पष्ट करें कि क्या दीक्षा लेते समय आपने मेरे शिरच्छेद का आगार रखा था ? (पूरा घटना प्रसंग इस प्रकार है) एक बार स्वामीजी विहार करते करते काफरला गांव (मारवाड़) में पधारे । क्षांतिविजयजी भी पीपाड़ के अनेक श्रावकों के साथ मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिए वहां पधारे । उन्हें अनेक लोगों ने कहा- 'आप भीखणजी से चर्च करें।' एक दिन कुम्हारों के मोहल्ले में स्वामीजी जा रहे थे। सामने से वे भी आ गए। उन्होंने स्वामीजी से पूछा-'तुम्हारा नाम क्या है ?' . . स्वामीजी बोले-'मेरा नाम भीखण।' "जो तेरापन्थी भीखणजी हैं, वे तुम ही हो ?' 'हां, मैं वही हूं।' 'तुमसे निक्षेपों की चर्चा करनी है।' स्वामीजी बोले-निक्षेप कितने हैं ? वे बोले- निक्षेप चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १. भिदृ० १३८ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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