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________________ १०६ : भोमिलमहाकाव्यम् (पूरा दृष्टांत इस प्रकार है एक व्यक्ति वातरोग से पीड़ित था। वह एक व्यक्ति के पास पहुंचा। उसे अपनी व्यथा बताई। उसने कहा-यदि तुम वात-रोग से मुक्ति पाना चाहते हो तो सात मंजिले मकान से छलांग लगानी पड़ेगी। ऐसा करने पर रोगमुक्त हो जाओगे।' .. उसने प्रत्युत्तर में कहा -'आप भी वायु के रोग से ग्रस्त हैं। आप स्वयं इस उपाय को काम में क्यों नहीं लेते ?' __उसने कहा-'मैं ऐसा करता हूं तो मर जाऊंगा।' ___ तब मैंने कहा-'जब आपकी यह स्थिति हो सकती है तो मेरी यह स्थिति क्यों नहीं होगी ?" निगमन : असंयती को दान देने से हमारा साधुपन भग्न होता है, पर तुम दो, तुम्हें पुण्य होगा।' यह कथन का कैसा विपर्यास ! जिससे साधुपन भग्न होता है, उससे पुण्य कैसे होगा ?" १५. यत्कार्य विदधाति नो स्वयमहो सामान्यतो यो हि तद्, अन्यान् कारयतः कथं न सहसा शङ्कावकाशो भवेत् । संयावे परिवेषिते स्वसुहदे क्वेडस्य शङ्कान्विते, मुक्तेऽमा बुगपन्न संशयकवा नो चेत् कथं प्रत्ययः॥ जिस कार्य को व्यक्ति स्वयं नहीं करता, उसी कार्य को दूसरों से - करवाते समय वहां सहसा शंका क्यों नहीं होती? असंयती को दान देने में पुण्य बतलाने वाले व्यक्ति स्वयं असंयती को दान क्यों नहीं देते ? यदि पुण्य होता हो तो, पहले स्वयं करें, फिर दूसरों से करवाएं। दो मित्रों के मध्य जो मनमुटाव था वह मिटा तब एक मित्र ने अपने मित्र को भोजन के लिए निमंत्रित किया और भोजन में हलवा परोसा । मित्र ने कहा-आओ, साथ भोजन करें।' उसने आनाकानी की तब उसे शंका हुई कि हलचे में जहर तो नहीं मिला दिया है ? यदि वह मित्र साथ में भोजन करता है तो संशय नहीं उत्पन्न होता । अन्यथा विश्वास कैसे हो?" १६. शात्वा त्वाममुनि ददाति विसवं किं तत्र सजायते, जधाबोधतया सिता विहसिता कि नार्पयेन् माधुरीम् । ज्ञानं बस्य न शोमनं सुरचिताऽनिष्टाकिया स्यात् कर्ष, पात्रे दत्तमनिन्धमुत्तमतमं सिद्धान्ततः सिध्यति ॥ १. भिदृ० ७२। २. वही, ७३ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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