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________________ चतुर्दशः सर्गः ८७ ५२. जिनो धर्मो दुःखानुभवभवदावानलजलं, चलच्चिन्ताचक्रे चतुरतरचिन्तामणिगणः। जिनो धर्मो रोगोरगविहगराजोऽक्षयकरो, जिनो धर्मः सम्पत्सुरतरुशुभावतंजलजः॥ हे भव्यो ! यह जिनधर्म दुःखानुभव से होने वाले दावानल के लिए मेघतुल्य, चलते हुए चिन्ताचक्र के लिए चिन्तामणि रत्न के समान, रोगरूप सर्पसमूह के लिए गरुड़तुल्य एवं सम्पदा के लिए कल्पवृक्ष एवं दक्षिणावर्त शंख के समान है। ५३. जिनो धर्मो धर्मो जननजरजाड्यादिविभिदे, जिनो धर्मो मर्माभिदऽविदितकर्मापकरिणाम् । जिनो धर्मः प्रौढादपि च परमप्रौढपददः, पराहन्त्यं धर्मो वितरति न कि सिध्यति ततः॥ " यह जिनधर्म जन्म, जरा रूप हिमालय पर्वत को भेदन करने के लिए (हिम को पिघालने के लिए) आतप के समान, अज्ञात कर्मरूपी दुष्ट हाथी के मर्मस्थल का भेदन करने वाला एवं उच्चतम प्रौढ़पद को देने वाला है। यह परम अर्हत् पद का प्रदाता है । इस धर्म से क्या सिद्ध नहीं होता? - ५४. अतः सम्यकतत्त्ववभिरिह षडद्रव्यसहितः, रुची रुच्याऽऽरक्ष्याऽमरशिखरिचूलामिव वराम् । जिनेन्द्रोक्तं धर्म सुरतरुमिवाराधयति योऽचिरान् मेध्यं मोक्षं विलसति स सच्चित्सुखमयम् ॥ नवतत्त्व एवं षड्द्रव्य सहित जिनोक्त धर्म में मेरुपर्वत की चूला के समान दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए। सुरतरु के समान जिनधर्म की जो आराधना करता है, वह शीघ्र ही पवित्र एवं सच्चिदानन्दमय अक्षयसुखमय मोक्ष को पा लेता है। ५५. नरत्वं निर्मूल्यं मुकुरमणिवद् विष्टपतले, निरर्थ नैपुण्यं कुपरिणतिधर्माचरणवत् । मुधा मेधावित्वं नियतिहठवत् तस्य सबलं, न यो जैन धर्म रुचिररुचिभी राति रभसात् ॥ जो जिनधर्म पर परम श्रद्धाशील नहीं है, संसार में उसका मनुष्यत्व काचमणि के समान मूल्यहीन है और उसकी चातुरी दुष्ट अध्यवसाय से किए गए धर्माचरण के समान व्यर्थ है। उसका सबल पाण्डित्य भी नियति के हठ के समान निकम्मा है।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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