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________________ ७७ चतुर्दशः सर्गः • हे भव्य प्राणियो! यह मनुष्य जन्म नदी के प्रवाह में बहते हुए प्राणी को प्राप्त तटीय वृक्ष की शाखा के समान, निर्धन को चिन्तामणि की प्राप्ति के समान, समुद्र में गिरे हुए, डुबते हुए को जहाज के समान है । अतः महान् आनन्द को प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति समस्त सुखों के साधनभूत इस मनुष्य जन्म को प्राप्त कर जैनधर्म का आचरण करते हुए इसे सफल बनाएं। १५. बही रम्या गम्या विषयिविषयाभोगमधुराः, परं प्रान्तेऽनिष्टा हृतहृदयकिम्पाकफलवत् । अतस्त्याज्या भव्यभ्रमितपथवद् भ्रान्तपथिकः, समाकृष्ट्या तेषां कथमपि न भाव्यं परवशः॥ ये इन्द्रिय-विषय बाह्यदृष्टि से सुन्दर और मोहक तथा भोगकाल में मधुर भले ही लगें, परन्तु अन्त में ये मौत के संवाहक किंपाक फल के समान अनिष्ट होते हैं । जैसे पथ से भटका हुआ पथिक अपने भ्रान्तपथ को छोड देता है वैसे ही ये इन्द्रिय-विषय त्याज्य हैं। इनके आकर्षण के वशीभूत कभी नहीं होना चाहिए। १६. बहीरम्यर्मोगैस्तरलतरला यूयमनिशं, विपश्यन्तोऽपश्या अपि तदमितापज्जटिलताम् । यथा रोलम्बेष्टो'परितनमनोज्ञत्वरसिकाः, विलुब्धा रोलम्बा बहुशिततरं कण्टककुलम् ॥ इन बाह्य रमणीय भोगों से तुम रात-दिन चञ्चल होते हुए एवं इनकी अपरिमित आपदाओं की जटिलता को देखते हुए भी वैसे ही नहीं देख रहे हो जैसे गुलाब के फूल की उपरितन मनोज्ञता में रसिक भ्रमर उनमें छिपे हुए तीखे कांटों को नहीं देख पाते । १७. असारः संसारः प्रकटितविकारः पथि पथि, महापङ्काकीर्णः प्रहिरिव सुरागावरणितः । अनादेर्मोहान्धा यदिह पतिताः क्लेशबहुलास्तदुद्धारार्होऽयं मिलितनुभवोऽतः किमलसाः ॥ हे भव्यो ! प्रत्येक पथ में विकारग्रस्त यह असार संसार महान्दलदल से आकीर्ण तथा रंगीले चादर से ढंके हुए अन्धकूप के समान है । ऐसे संसार में अनादिकाल से पड़े हुए मोहान्ध मनुष्य अत्यन्त क्लेश पा रहे हैं। ऐसे दुःखद संसार से पार पाने के लिए यह मनुष्य जन्म मिला है, अत: क्यों अलसा रहे हो? १. गुलाबस्य जपायाः । २. सम्यग् रक्तावरणेन आच्छादितः ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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