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________________ ७४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४. पुरस्कृत्यार्हन्त्यागमनिगम'मानं गमयितुं, विदृब्धाः सैद्धान्तोत्तमविषयगीत्योऽतिरुचिराः । अबाध्यास्त: सूरत वितरणब्रह्मविरताऽव्रतश्रद्धाचाराभिनवनवतत्त्वादिविषये ॥ आचार्य भिक्षु ने भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देने के लिए अर्हत के आगम और निगमों (सहायक ग्रन्थों) के प्रमाणों को आगे रखकर, तों से अबाध्य दया, दान, ब्रह्म', व्रताव्रत, श्रद्धा, आचार एवं नव तत्त्वादि विषयों पर सैद्धान्तिक उत्तम एवं रुचिर गीतिकाएं रची। ५. स्वकृत्येत्यं स्वात्माऽविकलसुविचारा हृदयवत्, पुरस्ताद् भव्यानां विधिवदवितास्तेन मुनिना। चिरत्नं शैथिल्यं मुनिगणभृतं हर्तुमनिशमकार्युद्योगालिश्चरमजिनवज्ज्योतिरुदितम् ॥ महामुनि ने अपनी रचित रचनाओं के द्वारा अपने सम्पूर्ण विचार भव्य प्राणियों के सन्मुख हृदय खोलकर रखे एवं मुनिगण में चिरकाल से भरे हुए शिथिलाचार को दूर करने के लिए उद्योग करने लगे। परिणामस्वरूप वीर प्रभु की तरह ज्योति प्रगट हुई। ६. समीचीनं जैनं निजनिजमुनौ मुख्यविधिना, . समुत्तार्योत्तार्यात्मिकहितकृते निर्मलधिया। जनानामन्वक्षं हवितथलसज्जैनमुनितास्वरूपं साकारं सपदि समुपस्थापितमहो॥ आचार्य भिक्षु ने आत्महित के लिए सर्वप्रथम अपने में तथा अपने सहयोगी मुनियों में अपनी निर्मल बुद्धि से तथा मुख्य विधि से जैन दर्शन का यथार्थ स्वरूप साकार किया तथा जैन श्रमण का सही स्वरूप जनता के समक्ष प्रस्थापित किया। ७. जिनाज्ञायां मोक्षाध्वनि सुपरिणामे च विरता वहिंसायां तृष्णाहृति सदुपदेशे त्रिविधिना । अरागद्वेषादौ कुटिलकलुषात् त्राणकरणे, चिदात्मीये लाभे समुपदिशते धर्मममलम् ॥ १. निगमः-आगम के सहायक ग्रन्थ । २. सूरत:-दयालु, दयाभाव-(अभि० २।३३) । ३. ब्रह्मचर्य की नवबाड ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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