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_उ. - यदि ऐसा ही है तो फिर नाम क्यों लेते हो! अक्षरों में क्यों स्थापना करते हो, अरिहन्त मोक्ष जाने के बाद सिद्ध होते हैं, वे भी तो अरिहन्तों का द्रव्य निक्षेप हैं, उनको नमस्कार क्यों करते हो? बिचारे भोले लोगों में भ्रम डालने के लिये ही कहते हो कि "एक भाव निक्षेप ही वन्दनीय है", यदि ऐसा ही है तो उपरोक्त तीन निक्षेपों को मानने की क्या जरूरत है, परन्तु करो क्या? न मानों तो तुम्हारा काम ही न चले, इसी से लाचार हो तुम्हें मानना ही पड़ता है। शास्त्रों में कहा है कि जिसका भाव निक्षेप वन्दनीय है उसके चारों निक्षेप वन्दनीय हैं और जिसका भाव निक्षेप अवन्दनीय है उसके चारों निक्षेप भी अवन्दनीय हैं। एक आनंद श्रावक का ही उदाहरण लीजिये, उसने अरिहन्तों को तो वन्दनीय माना, और अन्य तीर्थियों को वन्दन का त्याग किया। यदि अरिहन्तों का भाव निक्षेप वन्दनीय और तीन निक्षेप अवन्दनीय है तो अन्य तीर्थङ्करों का भाव निक्षेप अवन्दनीय और शेष तीन निक्षेप वन्दनीय ठहरते हैं, पर ऐसा नहीं होता, देखिये
अरिहन्तों के चार निक्षेप :(1) नाम निक्षेप - अरिहन्तों का नाम वन्दनीय।
(2) स्थापना निक्षेप - अरिहन्तों की मूर्ति या अरिहन्त आदिनाथ महावीर ऐसे लिखे हए अक्षर वन्दनीय ।
(3) द्रव्यनिक्षेप - भाव अरिहन्तों की तरह भूत, भविष्यकाल के अरिहन्त वन्दनीय।
(4) भावनिक्षेप - समवसरण स्थित अरिहन्त वन्दनीय जैसे सीमंधर स्वामी।
अन्य तीर्थियों के चार निक्षेप __ (1) नामनिक्षेप - अन्य तीर्थियों का नाम निक्षेप अवन्दनीय ।
(2) स्थापना निक्षेप - अन्य तीर्थङ्करों की मूर्ति अवन्दनीय ।
(3) द्रव्यनिक्षेप - भाव निक्षेप का भूत भविष्यकाल के अन्य तीर्थङ्कर अवन्दनीय।
(4) भावनिक्षेप - वर्तमान के अन्य तीर्थङ्कर अवन्दनीय। .
यह सीधा न्याय है कि सतीर्थियों के जितने निक्षेप वन्दनीय हैं, उतने ही अन्य तीर्थियों के अवन्दनीय हैं अर्थात् स्व तीथियों के चारों निक्षेप वन्दनीय पाँचों इन्द्रियों के भौतिक सुख सदा डुबोने वाले हैं।