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________________ ७२ महावीर वाणी २. जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढ़ई। दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं ।। (उ० ८ : १७) जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। लाभ से लोभ बढ़ता है। दो मासे सोने से होनेवाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। ३. सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्य लुद्धस्स ने तेहिं केंचि इच्छा उ आगासमा अणंतिया।। (उ० ६ : ४८) कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी संतोष नहीं होता, कारण इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है। ४. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स इइ विज्जा तवं चरे।। (उ० ६ : ४६) चावल, जौ, सोना और पशु सहित यह परिपूर्ण पृथ्वी भी एक लोभी की तृष्णा को तृप्त करने में यथेष्ट नहीं है, यह समझकर संतोष रूपी तप कर। ५. संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।। (मू० ७६) ___ संसारचक्रवाल में भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गलों का बहुत बार आहार किया और उन्हें बल आदि रूप में परिणमन किया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई। ६. तिणकट्टेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं। ___ इमो जीवो सक्को तिप्पे, कामभोगेहिं ।। (मू० ८०) जैसे तृण और काष्ठ से अग्नि तृप्त नहीं होती, और हजारों नदियों से भी लवण-समुद्र पूर्ण नहीं होता, उसी तरह यह जीव भी काम-भोगों से सन्तुष्ट नहीं होता। ७. इट्ठा-विओगं-दुक्खं होदि महड्ढीण विसय-तण्हादो। विसय-वसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुदो तित्ती।। (द्वा० अ० ५६) विषयों की तृण्णा के कारण महर्द्धिक देवों को भी इष्ट-वियोग का दुःख होता है। जिनका सुख विषयाधीन है, उन्हें तृप्ति कैसे हो सकती है ? ८. पीओसि थणच्छीरं अणंतजम्मतराई जणणीणं। अण्णण्णाण महाजस! सायरसलिलाहु अहिययरं ।। (भा० पा० १८) हे महायश के धारी ! तुमने अनन्त जन्मों में भिन्न-भिन्न माताओं के स्तनों का सागर के पानी से भी ज्यादा दूध पिया है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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