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६. कामभोग
७. तह अप्पं भोगसुहं जह धावंतस्स अठितवेगस्स। गिम्हे उण्हातत्तस्स होज्ज छायासुहं अप्पं ।। (भग० आ० १२५६)
ग्रीष्मकाल में सूर्य के धूप से अभितप्त बिना रुके दौड़ते हुए पथिक को रास्ते में वृक्ष की छाया से अल्प ही सुख मिलता है, वैसे ही इस जीव को भोग-पदार्थों से अल्प-सा ही सुख मिलता है। ८. अहवा अप्पं आसाससुहं सरिदाए उप्पिंतस्स।
भूमिच्छिक्कंगुट्ठस्स उभमाणस्स होदि सोत्तेण ।। (भग० आ० १२६०)
अथवा नदी में जल के प्रवाह से बहते चले जाते हुए पुरुष को अँगूठे से भूमि का स्पर्श होने से जैसे थोड़ा अश्वासन रूप सुख होता है, वैसे ही वैषयिक भोगों में अल्प सुख होता है। ६. जावंति केइ भोगा पत्ता सवे अणंतखुत्ता ते।
को णाम तत्थ भोगेसु विभओ लद्धविजडेसु।। (भग० आ० १२६१)
जो भी भोग प्राप्त हैं वे तुम्हें अनन्त बार प्राप्त हुए हैं, अतः प्राप्त कर छोड़े हुए भोगों में विस्मय जैसी क्या है ? १०. दुक्खं उप्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होदि जदि सत्तू। अदिदुक्खं कदमाणा भोगा सत्तू किह ण हुंती।।
(भग० आ० १२७१) दुःख उत्पन्न करने से यदि पुरुष-पुरुष के शत्रु होते हैं तो अतिशय दुःख देने वाले इन्द्रिय-सुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ? ११. इधई परलोगे वा सत्तू मित्तत्तणं पुणमुवेंति।
इधई परलोगे वा सदाइ दुःखावहा भोगा।। (भग० आ० १२७२) __ इसी जन्म में अथवा पर-जन्म में शत्रु पुनः मित्रता धारण कर सकते हैं, परन्तु भोग इस लोक में तथा परलोक में सदा ही दुःखकारी होते हैं। १२. एगम्मि चेव देहे करेज्ज दुक्खं ण वा करेज्ज अरी। भोगा से पुण दुक्खं करंति भवकोडिकोडीसु।।
(भग० आ० १२७३) शत्रु इस एक ही भव में देह को दुःख उत्पन्न कर सकता है अथवा नहीं भी कर सकता है, परन्तु भोग कोटि-कोटि भवों में दुःख उत्पन्न करते हैं।