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________________ ३. आत्मा : बंध और मोक्ष . ६. आराध्य और शरण : आत्मा ही १. जो इच्छइ णिस्सरिदं संसारमहण्णवस्स रुद्दाओ। कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ।। (मो० पा० २६) जो संसाररूपी महावन के विस्तार से निकलना चाहता है, वह कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। २. णविएहिं जं णविज्जइ झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं । थुव्वंतेहि थुणिज्जइ देहत्थं किं तं मुणह।। ___ (मो० पा० १०३) नमस्कार योग्य जिसको नमस्कार करते हैं, ध्यान करने योग्य जिसका निरंतर ध्यान करते हैं और स्तुति करने योग्य जिसका स्तवन करते हैं वह शरीर में स्थित आत्मा ही है, अन्य नहीं। उसे ही जानो। ३. अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। (मो० पा० १०४) अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये जो पांच परमेष्ठी हैं, वे भी आत्मा में ही स्थित हैं अर्थात् आत्मा ही अर्हन्त, सिद्ध आदि पदों को प्राप्त करता है। इसलिए निश्चय से आत्मा ही मेरा शरण है। ४. सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव। चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। (मो० पा० १०५) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप-ये चारों आत्मा में ही स्थित हैं। अतः आत्मा ही निश्चय से मेरा शरण है। ५. एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। ___सेसा मे बाहिरा भावा सब्वे संजोगलक्खणा।। (भा० पा० ५६) ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला एक मेरा आत्मा ही शाश्वत है। शेष सभी मेरे भाव बाह्य हैं। वे सभी पर द्रव्य के संयोग से प्राप्त हुए हैं। ६. जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ।। (भा० पा० ६१) - जो जीव शुभ भावों से संयुक्त होता हुआ आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करता है, वह जरा और मरण का विनाश करके निश्चय से मोक्ष प्राप्त करता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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