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________________ ३. आत्मा : बंध और मोक्ष ७. पंचिदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जिय।। (उ० ६ : ३६) पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और अपनी दुर्जय आत्मा-ये दस शत्रु हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर सब जीत लिए जाते हैं। ८. आत्मा : रक्षित और अरक्षित १. बालस्स मंदयं बीयं जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेइ से पावं पूयणकामो विसण्णेसी।। (सू० १,४ (१) : २६) मूर्ख मनुष्य की दूसरी मूर्खता यह होती है कि वह कृत पाप-कर्म को बाद में अस्वीकार करता है। इस तरह निन्दा से बचने की कामना करने वाला विषण्णैषी-असंयमी मनुष्य दुगुना पाप करता है। २. से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे।। (द०८ : ३१) विवेकी पुरुष जान या अजान में कोई अधर्म कृत्य कर बैठे तो अपनी आत्मा को शीघ्र उससे हटा ले और फिर दूसरी बार वह कृत्य न करे। ३. अणायारं परक्कम नेव गृहे न निण्हवे । सुई सया वियडभावे असंसत्ते जिइंदिए।। (द० ८ : ३२) अनाचार का सेवन कर लेने पर उस पर पर्दा न डाले और न अस्वीकार करे परन्तु सदा पवित्र, प्रगट, अनासक्त और जितेन्द्रिय रहे। ४. जो पव्वरत्तावरत्तकाले संपिक्खई अप्पगमप्पएणं। कि मे कडं किं च मे किच्चसेसं किं सक्कणिज्जं न समायरामि।। किं मे परो पासइ किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्ज्यामि। (द० चू० २ : १२, १३) मुमुक्ष रात्रि के प्रथम और पिछले प्रहर में अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा का संप्रेक्षण करता है-मैंने क्या करने योग्य कार्य किया है, क्या कार्य करना शेष है, वे कौन से कार्य हैं जिन्हें करने की शक्ति तो है किन्तु कर नहीं रहा हूं, मुझमें दूसरे क्या दोष देखते हैं, मेरी आत्मा मुझमें क्या दोष पाती है, मैं अपनी किस स्खलना को नहीं छोड़ रहा हूँ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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