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________________ ३. आत्मा : बंध और मोक्ष २१ मोह के कारण जिस मनुष्य की परद्रव्य में परमाणु के बराबर भी रति होती है, वह मूर्ख अज्ञानी है, आत्मा के स्वभाव से विपरीत है । ८. परदव्वरओ बज्झइ विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहि । एसो जिणउवएसो समासओ बंधमोक्खस्स ।। (मो० पा० १३) जो परद्रव्य में राग करता है, वह अनेक प्रकार के कर्मों का बंध करता है और जो परद्रव्य में राग नहीं करता है वह अनेक प्रकार के कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है, यह जिनेन्द्र भगवान् ने संक्षेप में बन्ध और मोक्ष का उपदेश दिया है। ४. स्वद्रव्य : परद्रव्य १. परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।। परद्रव्य में राग करने से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य में होती है। ऐसा जानकर स्वद्रव्य में राग करो, परद्रव्य में राग मत करो। २. आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं । । (मो० पा० १७) आत्मस्वभाव से भिन्न जो सचेतन (स्त्री, पुत्र आदि), अचेतन ( धन-धान्य आदि ) सचेतन-अचेतन (आभूषण सहित स्त्री आदि) पदार्थ हैं, सर्वज्ञ देव ने उन सब को वास्तव में परद्रव्य कहा है। ३. दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हवइ सद्दव्वं । । (मो० पा० १६) राग करने से सुगति (मो० पा० १८) दुष्ट कर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञान- शरीरी और नित्य शुद्ध आत्मा को जिनेन्द्र देव ने स्वद्रव्य कहा है । ४. जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिता । ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं || (मो० पा० १६) जो परद्रव्य से विमुख और सम्यक् चारित्र से युक्त होकर आत्मद्रव्य का ध्यान करते हैं, वे जिनवर भगवान् के मार्ग में लगे रहकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ५. बंध और मोक्ष १. जीवा संसारत्या णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा । उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ।। (पंचा० १०६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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