________________
३८. क्रान्त वाणी
४. पडंति नरए धोरे जे नरा पावकारिणो । दिव्वं च गई गच्छंति चरित्ता धम्ममारियं । ।
( उ०१८ : २५)
जो मनुष्य पाप करने वाले हैं वे घोर नरक में गिरते हैं और आर्य-धर्म-सत्यधर्म का पालन करने वाले दिव्य गति में जोते हैं 1
५. एगओ विरइं कुज्जा एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं । ।
( उ० ३१ : २)
मुमुक्षु एक बात से विरति करे और एक बात में प्रवृत्ति । असंयम - हिंसादिक से निवृत्ति करे और संयम - अहिंसादि में प्रवृत्ति ।
६. किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए । दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने धम्मं चर सुदुच्चरं । ।
३८. १
(उ०१८ : ३३) धीर पुरुष क्रिया में रुचि करे और अक्रिया को छोड़ दे तथा सम्यकदृष्टि से दृष्टिसम्पन्न होकर सुदुष्कर धर्म का आचरण करे ।
४. अनाथ
१. जो पव्वइत्ताण महव्वयाई सम्मं नो फासयई पमाया । अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे न मूलओ छिंदइ बंधणं से ।।
( उ० २० : ३६)
जो प्रव्रजित हो बाद में प्रमाद के कारण महाव्रतों का समुचित रूप से पालन नहीं करता, जो आत्मनिग्रही नहीं होता और रस में गृद्ध होता है, वह संसार-बंधन की जड़ों को मूल से नहीं उखाड़ सकता ।
२. चिरपि से मुण्डरुई भवित्ता अथिर व्वए तवनियमेहि भट्ठे । चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता न पारए होइ हु सपराए । ।
( उ० २० : ४१)
जो व्रतों में स्थिर नहीं होता और तप के नियमों से भ्रष्ट होता है, वह चिरकाल से मुंडन में रुचि रखते हुए भी और चिरकाल तक आत्मा को क्लेश पहुँचाने पर भी इस संसार का पार नहीं पाता।
३. पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे अयंतिए कुडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासे अमहग्घए होइ य जाणएसु ।।
( उ० २० : ४२)