________________
३७२
१२. जया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोग मत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ । ।
(द० ४ : २५)
जब मनुष्य सर्व कर्मों का क्षय कर नीरज हो सिद्धि को प्राप्त करता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध होता है ।
१३. सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणई सोच्चा जं छेयं तं समायरे ।।
(द०४ : ११)
जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है । पाप और कल्याण दोनों सुनकर ही जाने जाते हैं। सुनकर मनुष्य जो श्रेय हो उसका आचरण करे ।
महावीर वाणी
१४. सिद्धि और उनके सुख
१. असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य णाणे य ।
सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ।। (औ० १६५ : ११)
|
सिद्ध शरीररहित होते हैं । वे चैतन्घन होते हैं । केवलज्ञान और केवलदर्शन से संयुक्त होते हैं। साकार और अनाकार उपयोग उनका लक्षण होता है।
२. केवणाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे ।
पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहि णंताहिं । ।
(औ० १६५ : १२)
सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने से सर्वभाव, गुणपर्याय को जानते हैं और अपनी अनन्त केवल दृष्टि से सर्वतः देखते हैं ।
३. णवि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं अव्वाबाहं उवगयाणं ।।
सोक्खं
(औ० १६५ : १३)
न मनुष्य के ऐसा सुख होता है और न सब देवों के, जैसा कि अव्याबाध गुण को प्राप्त सिद्धों के होता है ।
४. जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो । न चएइ परिकहेउं उवमाए तहिं असंतीए । । इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिणं सेणह वोच्छं ।।
(औ० १६५ : १६, १७)