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महावीर वाणी
५. जमिणं जगई पुढो जगा कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहई णो तस्स मुच्चे अपुट्ठवं ।।
(सू० १, २ (१) : ४) इस जगत् में जो भी प्राणी हैं, वे पृथक्-पृथक् अपने-अपने संचित कर्मों से ही संसार में भ्रमण करते हैं और स्वकृत कर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियाँ पाते हैं। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता। ६. अस्सिं च लोए अदुवा परत्था सयग्गसो वा तह अण्णहा वा। संसारमावण्ण परं परं ते बंधंति वेयंति व दुण्णियाणि ।।
___ (सू० १, ७ : ४) इसी जन्म में अथवा पर जन्म में कर्म फल देते हैं। किये हुए कर्म एक जन्म में अथवा सहस्रों-अनेक भवों में भी फल देते हैं। जिस प्रकार वे कर्म किये गए हैं, उसी तरह से अथवा दूसरी तरह से भी फल देते हैं। संसार में चक्कर काटता हुआ जीव कर्मवश बड़े से बड़ा दुःख भोगता है और फिर आर्तध्यान कर नये कर्म को बाँधता है। बाँधे हुए कर्मों का फल दुर्निवार्य है। '७. कामहि य संथवेहि य कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुए एवं आयुखयम्मि तुट्टई।।
(सू० १, २ (१) : ६) जिस तरह समय पाकर बन्धन से मुक्त हुआ ताल फल भूमि पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार आयु शेष हो जाने पर मनुष्य मरण को प्राप्त होता है। काम-भोग तथा सम्बन्धियों में आसक्त मनुष्य मरकर अपने कर्मों के साथ परभव में जाता है और उसका फल भोगता है। ८. सव्वे सयकम्मकप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो। हिडंति भयाउला सढा जाइजरामरणेहिऽभिदुया ।।
(सू० १, २ (३) : १८) सर्व प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही पृथक्-पृथक योनियों में व्यवस्थित हैं। कर्मों की अधीनता के कारण अव्यक्त दुःख से दुःखित शठ प्राणी जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत और पीड़ित रहते हुए चार गतिरूप संसार-चक्र में भटकते हैं। ६. तेणे जहा संधि-मुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि।।
(उ० ४ : ३)