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महावीर वाणी
१६. निर्ग्रन्थ
१. पंचासवपरिन्नाया तिगुत्ता छसु संजया।
पंचनिग्गहणा धीरा निग्गंथा उज्जुदंसिणो।। (उ० ३ : ११)
निर्ग्रन्थ पंचास्रव का निरोध करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, छह प्रकार के जीवों के प्रति संयत, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले तथा धीर और ऋजुदर्शी होते हैं। २. आयावयंति गिम्हेसु हेमंतेसु अवाउडा ।
वासासु पडिसलीणा संजया सुसमाहिया।। (उ० ३ : १२)
सुसमाहित संयमी निर्ग्रन्थ, ग्रीष्मकाल में सूर्य की आतापना लेते हैं, शीतकाल में अप्रावृत अथवा अल्पाच्छन्न होते हैं और वर्षा में प्रतिसंलीन-इन्द्रियों को वश में कर अंदर रहते हैं। ३. परीसहरिऊदंता धुयमोहा जिइंदिया।
सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमति महेसिणो।। (उ० ३ : १३)
महर्षि निर्ग्रन्थ परीषहरूपी शत्रुओं को जीतने वाले, धुतमोह और जितेन्द्रिय होते हैं तथा सर्व दुःखों के नाश के लिए पराक्रम करते हैं। ४. दुक्कराई करेत्ताणं दुस्सहाइं सहेत्तु य।
केइत्थ देवलोएसु केई सिज्झति नीरया।। (उ० ३ : १४)
दुष्कर करनी करते हुए और दुःसह कष्टों को सहते हुए कई निर्ग्रन्थ देवलोक को जाते हैं और कई सम्पूर्णतः निरज-कर्मरज से रहित हो सिद्ध हो जाते हैं। ५. खवित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेण य।
सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता ताइणो परिनिव्वुडा।। (उ० ३ : १५)
त्रायी निर्ग्रन्थ, संयम और तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर, सिद्धि.मार्ग को प्राप्त हो, परिनिर्वृत्त-मुक्त होते हैं।
१७. साधु-जीवन-समुच्चय १. अपरिग्गहा अणिच्छा संतुट्ठा सुट्टिदा चरित्तम्मि।
अवि णीएवि सरीरे ण करंति मुणी ममत्तिं ते।। (मू० ७८३)
परिग्रह-रहित, इच्छा-रहित, संतोषी, चारित्र में सुस्थित-ऐसे मुनि अपने शरीर में भी ममत्व नहीं करते।