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महावीर वाणी
३. भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा कंखेज्ज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुट्ठे धुयमाइएज्जा संगामसीसे व परं दमेज्जा ।। (सू० १, ७ : २६)
में
मुनि संयम भार के निर्वाह के लिए आहार करे। वह पूर्व पापों के विनाश की इच्छा करे। परीषह या उपसर्ग आ पड़ने पर धर्म में ध्यान रखे। जैसे सुभट युद्धभूमि को दमन करता है, उसी तरह वह अपनी आत्मा का दमन करे । ४. अवि हम्ममाणे फलगावतट्टी समागमं कखइ अंतगस्स । णिद्धूय कम्मं ण पवंचुवेइ अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ।। (सू० १, ७ : ३०)
शत्रु
हनन किया जाता हुआ साधु छिली जाती हुई लकड़ी की तरह राग-द्वेष रहित होता है। वह शान्त भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। इस प्रकार कर्म-क्षय करनेवाला साधु उसी प्रकार भव-प्रपञ्च में नहीं पड़ता जिस प्रकार गाड़ी धुरा टूटने पर आगे नहीं चलती
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५. सद्देसु रूवेसु असज्जमाणे रसेसु गंधेसु अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाभिकखे आयाणगुत्ते वलया विमुक्के || (सू० १, १२ : २२)
मनोहर शब्द और रूप में आसक्त न होता हुआ, बुरे रस और गन्ध में द्वेष न करता हुआ तथा जीने और मरण की इच्छा न करता हुआ साधु संयम से गुप्त और माया से रहित रहे !
६. ण य संखयमाहु जीवियं तह वि य बालजणो पगभई । बाले पावेहि मिज्जई इइ संखाय मुणी ण मज्जई ।।
(सू० १, २ (२) : २१)
यह जीवन साँधा नहीं जा सकता - ऐसा कहा गया है, तो भी मूर्ख प्राणी प्रगल्भता वश पाप करते रहते हैं। मूर्ख पापों के ढँक जाता है- -यह जानकर मुनि मद न करे।
१५. बहु खु मुणिणो भद्दं
१. सुहं वसामो जीवामो जेसिं मो नत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण | |
( उ०६ : १४)