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________________ इस ग्रंथ में भगवान् महावीर के मार्मिक उपदेशों का संग्रह है। प्रारंभ के १ से ३१ तक के परिच्छेदों में महावीर की सार्वभौम शिक्षाओं का संग्रह है, जो निर्विशेषरूप से मानव मात्र के लिए आज भी उतनी ही मार्ग दर्शक हैं जितनी २५०० वर्ष पूर्व रहीं । किसी भी जाति और धर्म के व्यक्ति के लिए, फिर वह गृहस्थ हो या गृह-त्यागी, ये उपदेश अमृतमय एवं कल्याणप्रद हैं। ३२ से ३५ तक के परिच्छेदों में उस वाणी का समावेश है जो जैन प्रव्रज्या की विशेषता - जैन श्रमण के महाव्रतों, उत्तर गुणों आदि पर प्रकार डालती है। जैन श्रमणजीवन की अखण्ड, सूक्ष्म अहिंसा-साधना, दुर्धर संयम-उपासना और कठोर साधनचर्या का अंतरंग परिचय इससे प्राप्त होता है । ३६ वें परिच्छेद में श्रमणों के लिए उपदेशों का संग्रह है, जिसमें सर्व साधारण के लिए उपयोगी अनेक गंभीर शिक्षा-कण गर्भित हैं। ३७वें परिच्छेद से महावीर ने सर्वग्राही निरीश्वरवादी चिरंतन जैन दर्शन का जिस रूप में प्रतिपादन किया, उसका सहज बोध होता है। अन्तिम ३८वें परिच्छेद में भगवान् महावीर ने अपने युग की बुराइयों और जड़ताओं के विरुद्ध जो तुमुल संग्राम किया, उसकी सहज झांकी है। सन् १६५३ में प्रकाशित 'तीर्थंकर' नामक मेरी पुस्तक में भगवान महावीर के प्रवचनों का विस्तृत संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिसे संत विनोबा ने सर्वोत्तम बताया था। वह केवल श्वेताम्बर आगम-ग्रन्थों पर ही आधारित था । प्रस्तुत ग्रन्थ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों स्रोतों से संकलित वाणी से ग्रथित है, अतः अधिक व्यापक है । इस ग्रन्थ के प्रस्तुत करने में जिन-जिन ग्रंथों का अवलोकन किया या आधार लिया है, उनकी सूची ग्रंथ के अन्त में दे दी गई है। मैं सभी लेखकों और प्रकाशकों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापन करता हूं । स्वर्गीय मूर्धन्य विद्वान, जैन विद्या मनीषी डा० ए० एन० उपाध्ये- जिनके सद्य आकस्मिक निधन से जैन समाज की ही नहीं सारे विद्वान् जगत की अपूर्ति कर क्षति हुई है - के प्रति किन शब्दों में अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करूं ? उन्होंने तथा पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने इस संकलन के प्रारूप का अवलोकन कर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये, उसके लिए मैं इन दोनों महानुभावों का हृदय से कृतज्ञ हूं। भाई श्री यशपाल जैन ने भाषा सम्बन्धी सुझाव देकर संग्रह को परिमार्जित करने में सहयोग दिया। अन्त में भगवान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव महासमिति के अध्यक्ष श्री कस्तूरभाई लालभाई सारी पाण्डुलिपि की छान-बीन कर अपने सुझाव एवं संशोधन भेजे तथा इस संकलन को प्रकाशित करने की स्वीकृति दी। इसके लिए मैं उनका भी हृदय से आभारी हूं। कार्याध्यक्ष साहू श्री शांतिप्रसाद जी जैन की ओर से जो सौजन्य प्राप्त हुआ उसे नहीं भूल सकता।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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