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________________ ११. विजय-पथ जैसे खलिहान में रखे गए किसान द्वारा वर्ष भर में अर्जित अनाज को अग्नि की एक चिनगारी जला डालती है, वैसे ही क्रोधरूपी अग्नि सारे गुणों को जला देती है। ७. जध उग्गविसो उरगो दब्भतणंकुरहदो पकुप्पंतो। अचिरेण होदि अविसो तध होदि जदी वि णिस्सारो।। (भग० आ० १३६८) जैसे उग्र विषवाला कोई साँप डाभ के तृण से आहत होकर क्रोध करता हुआ उसे डॅसकर शीघ्र ही निर्विष हो जाता है, वैसे ही साधक पुरुष भी दूसरे पर क्रोध करता हुआ गुणों का त्याग कर निःसार हो जाता है। ८. पुरिसो मक्कडसरिसो होदि सरूवो वि रोसहदरूवो। होदि य रोसणिमित्तं जम्मसहस्सेसु य दुरूवो।। (भग० आ० १३६६) सुन्दर पुरुष का रूप जब वह क्रोधयुक्त होता है, तब नष्ट हो जाता है। वह मर्कट सदृश दिखाई देता है। क्रोध से उपार्जित पाप के कारण वह कोटि जन्मों में कुरूप होता है। ६. सुठु वि पिओ मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण। पधिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण।। (भग० आ० १३७०) क्रोध से मनुष्य का अत्यन्त प्रिय मित्र भी मुहूर्त भर में शत्रु हो जाता है। क्रोधी मनुष्य को जगत् प्रसिद्ध यश भी क्रोधवश किये गये अकार्य से नष्ट हो जाता हैं। १०. भिउडीतिवलियवयणो उग्गदणिच्चलसुरत्तलुक्खक्खो। कोवेण रक्खसो वा णराण भीमो णरो भवदि।। (भग० आ० १३६१) क्रोध से मनुष्य की भौहें चढ़ जाती हैं, ललाट पर त्रिवली पड़ जाती हैं, आँखें निश्चल, अत्यन्त लाल और रूखी हो जाती है और वह राक्षस की तरह मनुष्यों में भयंकर मनुष्य बन जाता है। ११. हिंसं अलियं चोज्जं आचरदि जणस्स रोसदोसेण। तो ते सव्वे हिंसालियचोज्जसमुभवा दोसा।। (भग० आ० १३७३) क्रोधी क्रोधवश हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, अतएव अनेक जन्मों में उसकी भी हिंसा होती है, उसके विषय में भी असत्य बोला जाता है, लोग उसका धन चुराकर ले जाते हैं। क्रोध से अनेक भवों में ऐसे दुःख भोगने पड़ते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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