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________________ किसी को अदृश्य व्यंतर की कल्पना नहीं थी। राज्य के गण्यमान्य व्यक्तियों ने सर्वसम्मति से श्रीपति नामक एक युवक को राजसिंहासन के लिए चुना । किसी प्रकार की कल्पना न हो और अकस्मात् ही इतने विशाल साम्राज्य का स्वामित्व प्राप्त हो तो क्या यह कम भाग्य की बात है ? जब भाग्य का उदय होना होता है, तब वह आकस्मिक रूप से होता है। यदि भाग्य मंद है तो वर्षों तक पुरुषार्थ करने पर भी कुछ नहीं होता । सबकी दृष्टि श्रीपति पर टिकी हुई थी और राजसभा के सदस्यों ने एकमत से श्रीपति को मालवनाथ के रूप में स्वीकृति दे दी ; क्योंकि श्रीपति भर्तृहरि के कुल का अति निकट सदस्य था । श्रीपति एक सामन्त था । उसके अधीन दस गांव थे और वह अवंती से बीस कोस की दूरी पर रहता था। कहां तो दस गांवों का आधिपत्य और कहां मालव प्रदेश का विशाल और समृद्ध राज्य! श्रीपति के माता -1 -पिता आनन्द- -विभोर हो गए। उन्होंने सोचा, अब यहां के मिट्टी के मकानों को छोड़कर कांच के महलों में निवास करना होगा। सैकड़ों दास-दासी आज्ञा की प्रतीक्षा में हाथ जोड़े खड़े मिलेंगे। पानी मांगने पर दूध प्रस्तुत करेंगे - सम्पूर्ण मालव में जयनाद गूंजेगा । कभी-कभी भाग्य जागता है तब व्यक्ति के मन में ऐसी तरंगें उठती हैं । श्रीपति का विवाह अगले वर्ष करना था। अभी चार मास पूर्व ही पांच गांव के एक सरदार की पुत्री के साथ सगाई की थी। श्रीपति के पिता ने सोचा, अब यह सगाई-संबंध शोभित नहीं होगा । पुत्र मालव का सम्राट् बने और वह एक निर्धन सरदार की पुत्री के साथ विवाह करे, यह किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। श्रीपति के लिए तो दूसरी कोई सगाई की खोज करनी होगी । अवंती के राजपुरोहित ने माघ शुक्ला तीज को राजतिलक का दिन निश्चित किया । उस वेला के अभी दस दिन शेष थे। श्रीपति के माता-पिता श्रीपति की स्वीकृति प्राप्त कर, सगाई को छोड़ने की बात कहलवा दी। श्रीपति, उसके माता-पिता तथा अन्य कुटुम्बीजन अवंती में आ गएउन सबको एक अन्य महल में ठहराया गया । राज्याभिषेक के पश्चात् वे राजभवन में आ जाएंगे, ऐसा राजपुरोहित नें कहा था। राज्याभिषेक का शुभ दिन आ गया। सारा नगर उत्सवमय हो गया। स्थानस्थान पर तोरणद्वार बनाए गए थे। जनता में यह जानकर प्रसन्नता थी कि महीनों से सूना पड़ा हुआ सिंहासन अब सनाथ होगा। सभी लोग नये राजा का अभिनन्दन करने के लिए उतावले हो रहे थे। २ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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