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जनता ने 'परदुःखभंजक' की उपाधि से विभूषित किया।
विक्रम के पचास वर्ष पूरे हुए। ज्योतिषशास्त्रियों ने इक्यानवें वर्ष को विक्रम संवत् के रूप में प्रचारित किया।
राजभवन की छत पर रात में महाराज विक्रमादित्य अकेले घूम रहे थे।
उनकी दृष्टि आकाश पर स्थिर थी। उनके मन में अनेक विचार उभर रहे थे
जीवन का आधा भाग बीत गया। मेरे अनेक साथी संसार से विदा हो गए। बेचारा रामदास! साथ में आया और संग्राम में मारा गया। स्वामीभक्त अजय शत्रु की तलवार का भोग बना। प्रिय कमला भी चली गई। देवदमनी सदा के लिए विदा हो गई।
ओह! यह संसार ही ऐसा है। सुख-दु:ख के घेरे में बंदी यह संसार जब तक नहीं छूटता तब तक....
विचारों-ही-विचारों में उन्हें अग्निवैताल की स्मृति हो आयी। अपने बड़े भाई भर्तृहरि की स्मृति उभरने लगी। भाभी ने जो आरोप लगाया था, वह याद आ गया।
और याद आया राजपाट। पचास वर्ष देखते-देखते क्षणभर में बीत गए। अब क्या किया जाए?
महाराजा विक्रमादित्य कुछ आगे सोचें, उससे पहले ही सुकुमारी छत पर आकर बोली- 'स्वामी!'
'आओ, सुकुमारी!' 'यहां अकेले आप क्या कर रहे हैं?'
'प्रिये! मैं अपने जीवन का लेखा-जोखा कर रहा हूं। मैंने क्या पाया, क्या खोया यह सोच रहा हूं।'
'महाराज! आपने क्या पाया-यह सोचना क्या है ? देखिए, गगन में तारागण भी आपका वर्धापन कर रहे हैं। कुपानाथ! आपने जनता को जीने की कला सिखाई है। इस धरती की पवित्र संस्कृति की रक्षा आपने की है। समूचे राष्ट्र में आपने धर्म और नीति की रेखाएं अंकित की हैं। कल हम सब काल-कवलित हो जाएंगे। सारी सम्पत्ति और सारा ऐश्वर्य यहीं रह जाएगा, किन्तु आपका कार्य कभी नष्ट नहीं होगा। वह कालातीत है। काल का उस पर असर नहीं होगा।'
वीर विक्रम गगन की ओर देखते रहे। ४३८ वीर विक्रमादित्य