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________________ श्रीमाल का राजकुमार रत्नसिंह पन्द्रह दिनों से अवंती में ही था। उसने पुष्पसेना की यह घोषणा सुनी और उसके मन में पुष्पसेना को पाने की लालसा जाग उठी। उसने पहले पुष्पसेना को देखने का निश्चय कर लिया। पांच दिन के पश्चात् रत्नसिंह अपने साथी के साथ पुष्पसेना के भवन में प्रविष्ट हुआ। पुष्पसेना की एक तरुण परिचारिका ने उनका भावपूर्वक स्वागत किया और दोनों को एक सज्जित कक्ष में बिठाया। एक दूसरी परिचारिका मैरेय के दो पात्र ले आयी और दोनों को देती हुई बोली-'आपका शुभ नाम?' 'मैं श्रीमाल का राजकुमार रत्नसिंह हूं। मैं देवी से मिलकर शर्त को समझना चाहता हूं।' 'देवी अभी यहां पधारेंगी।' दोनों मित्रों ने मैरेय का पात्र खाली कर दिया। परिचारिका ने पूछा-'और मैरेय लेंगे.?' 'नहीं', रत्नसिंह बोला। परिचारिका खाली पात्र लेकर चली गई। उसी क्षण एक परिचारिका के साथ देवी पुष्पसेना ने खंड में प्रवेश किया। पुष्पसेना को देखकर दोनों मित्र खड़े हो गए। पुष्पसेना ने अभिवादन करते हुए कहा-'आसन पर बैठें। क्या आज्ञा है?' रत्नसिंह पुष्पसेना के कामणगारे नयन को स्थिर दृष्टि से देख रहा था। उनका मित्र भी उस रूप को देखकर अपने आपको भूल-सा गया। औपचारिक बातचीत के पश्चात् पुष्पसेना ने अपनी शर्त को विस्तार से समझाया। रत्नसिंह बोला- 'शर्त अच्छी है। आपकी उम्र.....?' 'उन्नीसवां वर्ष चल रहा है।' 'मेरी इच्छा है कि मैं आपके साथ दांव खेलूं।' 'जैसी आपकी इच्छा । पर मेरी शर्त कठोर है। हारने वाले व्यक्ति को मैं एक खंड में बंद कर देती हूं। जीवनभर उसे वहीं रहना पड़ता है। आप राजकुमार हैं। क्या इतनी पीड़ा सहन कर सकेंगे?' 'हां, देवी! आपको पाने के लिए यह पीड़ा सुखदायक ही होगी।' खेल प्रारंभ करने के लिए दूसरा दिन निश्चित हुआ। अब रत्नसिंह के लिए रात बितानी कठिन हो गई। उसे पुष्पसेना के विचारों ने जकड़ लिया था। वह उसको देखकर पागल हो गया था। ४३२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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