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'जहां एक चिड़िया भी प्रवेश नहीं पा सकती, वहां आपका यह पौत्र आ सका है, यह आपके प्रत्यक्ष है। आपके पुत्र जानते हैं या नहीं, यह आप उनसे पूछे। मैंने आपकी कठोर शर्त पूरी की है। संसार में नारी की बुद्धि को कोई नहीं पहुंच सका, यह एक नग्न सत्य है, यह आपके समक्ष है।' मनमोहिनी ने स्वस्थ स्वरों में कहा।
वीर विक्रम मौन रहे। उन्होंने सूक्ष्मता से पूरे कक्ष का निरीक्षण किया। कहीं कुछ गड़बड़ी नहीं दिखी। फिर प्रश्न उठा-मनमोहिनी को बालक मिला कैसे?
मनमोहिनी ने मधुर स्वरों में कहा-'कृपानाथ! आपकी युवराज्ञी का गौरव आपका गौरव है। आप मुझे साथ में ले जाएं और फिर पुत्र को बुलाकर सही स्थिति जान लें।'
वीर विक्रम लाचार हो चुके थे। वे बोले-'मनमोहिनी! यदि तुम्हारा यह पुत्र अन्यायपूर्ण होगा तो मैं उसी समय तुम्हारा वध कर दूंगा।'
_ 'ऐसे शब्द कहने का आपको अभी कोई अधिकार नहीं है। अभी तो एक पिता जैसे अपनी पुत्री को आशीर्वाद देता है, वैसे ही आपको आशीर्वाद देना चाहिए। यह पुत्र अन्यायपूर्ण है, ऐसी कल्पना भी आपको नहीं आनी चाहिए। लगभग पन्द्रह महीने बीते हैं। मैंने इस कारागार में कठोर तपस्या की है।'
वीर विक्रम मनमोहिनी के तेजस्वी मुख की ओर दो क्षण देखते रहे और अन्त में एक पराजित योद्धा की तरह बोले- 'बेटी! यदि तुम्हारी बात सत्य होगी तो मैं अत्यन्त आनन्दित होऊंगा। चलो मेरे साथ....।'
मनमोहिनी ने निद्राधीन पुत्र को झूले से उठा लिया।
वीर विक्रम ने बाहर आकर अजय को पुकारा....मनमोहिनी रथ में बैठ गई। वीर विक्रम ने नंदा से कहा- 'कारागार का द्वार बन्द कर देना और तू यहीं रहना।'
'जी।' कहकर नंदा ने सिर झुकाया। वीर विक्रम रथ पर चढ़े। रथ राजभवन की ओर चला।
वीर विक्रम के मन में अनेक प्रश्न उभर रहे थे-यह एक अशक्य बात है। देवकुमार मनमोहिनी से किसी भी प्रकार से मिल नहीं सकता, पर मनमोहिनी की गोद में बालक है, किन्तु यह बालक तो एक महीने से अधिक का है। क्या दासियों ने इससे पूर्व बालक का रुदन कभी नहीं सुना? क्या नंदा ने आज ही रुदन सुना है? यह भी तो एक आश्चर्य ही है। उस कारागृह में यह कैसे घटित हुआ? मनमोहिनी के कथन के अनुसार यह बालक युवराज का है। मनमोहिनी के चेहरे पर कोई दुष्टता नहीं। यदि मनमोहिनी की बात सच है तो निश्चित ही यह विजयिनी हुई है। यह अजोड़ है-बुद्धि में, चरित्र में और गौरव में।
वीर विक्रमादित्य ४२३