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________________ वीर विक्रम खंड में पैर रखें, उससे पूर्व ही सभी रानियां खंड में प्रवेश कर गईं। सादे वस्त्रों में सौम्यगंधा के फूलों की तरह सुशोभित सुकुमारी को देखकर सभी रानियां अवाक् रह गईं । उसी समय वीर विक्रम ने अपने पुत्र के साथ कक्ष में प्रवेश किया। सुकुमारी ने स्वामी की ओर देखा । वीर विक्रम सुकुमारी की ओर देखने लगे। वही रूप ! वही तेज ! वही लावण्य ! वही मधुरिमा ! पर स्वयं ने इस प्रियतमा पर कितना भयंकर अन्याय कर डाला । सुकुमारी आगे आयी और प्रियतम के चरणों में झुक गई। वीर विक्रम ने दोनों हाथों से प्रियतमा को उठाते हुए कहा- 'प्रिये ! सबसे पहले तुम मुझे क्षमादान दो। तुम्हारे प्रति मैंने इतना भयंकर अपराध किया है कि क्षमा मांगने का अधिकार भी मैं खो बैठा हूं।' 'स्वामी.....' सुकुमारी विशेष कुछ नहीं बोल पायी। उसके नयन हर्ष से सजल हो गए थे । विक्रम ने संकोच को तिलांजलि देकर सबके समक्ष सुकुमारी को हृदय से लगा लिया और कहा- -'तुम्हारी सारी बहनें तुम्हारा स्वागत करने मेरे साथ आयी शीघ्र ही अवंती नगरी में पहुंचना है।' फिर कमलारानी की ओर मुड़कर विक्रम बोला- 'कमला ! मैं देवकुमार को लेकर बाहर जा रहा हूं। जनता जयनाद कर रही है। उनके समक्ष मैं युवराज का परिचय दे दूं। तब तक तुम प्रस्थान की तैयारी करो । ' वीर विक्रम देवकुमार के साथ कक्ष से बाहर आ गए। वीर विक्रम की पट्टरानी कमलावती थी। उसने सभी रानियों का परिचय कराया। सभी रानियों ने सुकुमारी का चरणस्पर्श किया । विक्रमगढ़ से सभी ने प्रस्थान किया। उस समय मध्याह्न बीत चुका था। जब वे सब अवंती पहुंचे तब संध्या ढल चुकी थी। हजारों पौरजन प्रतीक्षा में बैठे थे । वीर विक्रम ने देवकुमार को एक सुसज्जित और अलंकृत हाथी पर बिठाया और स्वयं एक खुले रथ में सुकुमारी के साथ बैठे। रात्रि के दूसरे प्रहर के पश्चात् शोभायात्रा राजभवन में पहुंची। देवकुमार का शयनगृह वीर विक्रम के कक्ष के निकट ही रखा गया था। देवी सुकुमारी की शयन-व्यवस्था मुख्य भवन में की गई थी। उस भवन में वीर विक्रम अधिकांश समय बिताते थे और वहीं अन्य तीन रानियां भी रहती थीं। वीर विक्रमादित्य ३६३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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