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मां के पास दो दिन ठहरकर देवकुमार सामान्य वेश में अवंती नगरी में आ पहुंचा। वहां जन-जन के मुंह से उसने सुना कि विक्रमादित्य महाराज ने यह घोषणा की है कि सात दिन के भीतर-भीतर सर्वहर मुझसे मिले और मेरी भूल बताए। फिर वह जैसा चाहेगा, वैसा प्रायश्चित्त करूंगा।'
देवकुमार मन-ही-मन प्रसन्न हुआ।
रात्रि का पहला प्रहर पूरा हो, उससे पूर्व ही देवकुमार विक्रमगढ़ आ पहुंचा और सीधा मां के कक्ष में गया। सुकुमारी नवकार महामंत्र का जाप कर रही थी। एक छोटा-सा दीपक टिमटिमा रहा था। उसके मधुर-मंद प्रकाश में माता की प्रशांत मूर्ति बहुत भव्य और सुन्दर लग रही थी। मां को जाप करते देख देवकुमार कुछ रुका। इतने में ही मां ने जाप पूरा कर देवकुमार की ओर देखा। देवकुमार तत्काल मां के पास आकर बोला- 'मां! आपकी साधना सफल हो गयी। कल मेरे महान् पिता ने राजसभा में नृपोचित एक उदार घोषणा की है। संघर्ष का अंत आ गया, मां!' कहकर देवकुमार छोटे बच्चे की भांति मां से चिपट गया।
मां बोली- 'अरे, बताओ तो सही, क्या घटित हुआ है?'
देवकुमार ने लोगों से सुनी सारी बात मां को बताई। मां का चेहरा खिल उठा।
मांने कहा-'बेटा! जब तुम राजसभा में सारा भेद खोलोगे, तो क्या तुम्हारे पिताश्री लज्जित नहीं होंगे?'
'नहीं, मां! मुझे तो उनकी आज्ञा का सम्मान करना है। यदि आपको उचित लगता हो तो मैं उनको एक संदेश भेजूं।'
'नहीं, इससे तो अच्छा है कि तुम एक बार अपने पिताश्री से स्वयं मिल आओ और जैसा वे कहें वैसा करो।'
'मां! इससे तो यह उचित है कि मैं उनसे राजसभा में ही मिलूं। इससे पिताश्री की महानता भी दीप्त होगी।'
इस प्रकार बातें करते-करते रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा होने लगा। देवकुमार अपनी शय्या पर जा सो गया।
सुकुमारी भी शय्या पर जा सो गई। किन्तु आज नींद आने का प्रश्न ही नहीं था। प्रियतम का मधुर स्मरण उसके हृदय को गुदगुदाने लगा। उसने सोचा, मेरे में पुरुषद्वेष कितना भयंकर था? मुझे सन्मार्ग पर लाने वाले मेरे प्रियतम का सहवास कितना मधुर था। यदि ये अपना परिचय उसी समय दे देते तो मुझे इतना दीर्घ वियोग सहना नहीं पड़ता। किन्तु इसमें इनका क्या दोष? मेरा प्रारब्ध ही ऐसा था। कर्मराजा ने मुझे वियोग की ज्वाला में जलने के लिए विवश किया और मैं सोलह वर्षों तक उसमें तिल-तिल कर जलती रही। अब उस कालरात्रि का अंत
३८४ वीर विक्रमादित्य