SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर विक्रम ने कहा- 'मैं तुम्हारी विजय चाहता हूं.....मैंने तुम्हारी चतुराई के विषय में सुना है....।' चपलसेना महाराज को नमस्कार कर विदा हो गई। चपलसेना ने पटह झेला है, यह बात समूचे नगर में प्रसारित हो गई। माता से मिलकर देवकुमार अपने स्थान पर आ गया। उसने भी चपलसेना के विषय में सारी चर्चा सुन ली। देवकुमार ने सोचा, अब मुझे चपलसेना को बोध-पाठ देना है। वह गणिका है, उसके घर कैसे जाया जाए ? उसने सोचा और उपाय ढूंढ़ निकाला। चपलसेना ने चोर को पकड़ने के लिए उपाय प्रारम्भ कर दिए। एक दिन बीता। दो दिन बीते। तीन दिन बीते। चोर पकड़ में नहीं आया। चौथे दिन। चपलसेना विचारों की उधेड़बुन में चिन्तित हो उठी। उस समय परिचारिका ने खंड में प्रवेश कर कहा- 'देवी की जय हो।' चपला चौंकी। उसने सोचा, गुप्तचरों के कुछ समाचार आए होंगे। उसने उत्साहपूर्ण दृष्टि से परिचारिका की ओर देखा। परिचारिका बोली- 'देवी ! कुंडलपुर के राजकुमार अतिथि-रूप में आए हैं।' 'कुंडलपुर?' 'हां, यह पूर्व भारत में स्थित है।' 'उनका वय?' 'पन्द्रह-सोलह वर्ष के प्रतीत होते हैं।' चपला ने मन-ही-मन सोचा, यह चोर की ही तो कोई चतुराई नहीं है? एक क्षण सोचा। सोचकर बोली- 'राजकुमार को यहां ले आ। उनके साथ और कोई है?' 'नहीं देवी!' 'अच्छा' कहकर चपला विचारमग्न हो गई। परिचारिका कुंडलपुर के राजकुमार को साथ ले खंड में प्रविष्ट हुई। चपला सोलह वर्ष के तेजस्वी और सुकान्त नौजवान को देखते ही समझ गई कि ये वास्तव में ही राजकुमार हैं। इनके चेहरे पर निर्दोष भाव है। इनकी आंखों में सहजता है, पवित्रता है। अरे, इस छोटे वय में ये अकेले गणिकावाड़ा में कैसे आये होंगे? ३६० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy