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कुछ समय तक शान्त रहकर देवकुमार ने शयनगृह के द्वार को देखा। वह भीतर से बन्द नहीं था, क्योंकि स्वामी रात्रि के चौथे प्रहर में लौटने वाले थे, उन्हें खोलने में परेशानी न हो, इसलिए कमला ने द्वार पर भीतर से आगल नहीं लगाई थी।
देवकुमार धीरे-धीरे शयनकक्ष में गया। पलंग पर दोनों रानियां गहरी नींद में सो रही थीं। उसने दोनों की नाक पर वह चूर्ण डाला। दोनों के हाथ अपनेअपने नथुनों पर गए और उसी क्षण दोनों मूर्च्छित हो गईं।
देवकुमार ने सबसे पहले दोनों माताओं को वंदन किया, फिर उसने चारों और देखा। स्वर्ण के आभूषण उसकी दृष्टि में पड़े। देवकुमार ने राजमुकुट को छोड़कर सारे आभूषण अपनी थैली में डाल दिए और माताओं को पुनः नमन कर वहां से निकल पड़ा।
रात्रि का चौथा प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। देवकुमार ने सैनिक पोशाक धारण कर रखी थी, इसलिए निर्भयतापूर्वक वह राजभवन से बाहर आ गया।
वीर विक्रम जब नगरचर्चा पूरी कर राजभवन में आए, तब देवकुमार अपने निवास-स्थान पर पहुंच गया था।
प्रात:काल होते-होते दोनों रानियों की मूर्च्छा टूटी। वे आंखें मलकर उठीं। उठते ही उनकी दृष्टि पलंग के नीचे रखे आभूषणों के थाल पर पड़ी। थाल पड़ा था, आभूषण नहीं थे। वे चौंकी। इधर-उधर देखा । आभूषण नहीं मिले। उन्हें निश्चय हो गया कि आभूषण चोरी हो गये हैं।
राजभवन में आते ही कमलारानी ने कहा- 'स्वामी ! अपने शयनकक्ष में कल रात को चोरी हो गई है।'
'चोरी ?'
‘हां, महाराज ! पलंग के नीचे रखे हुए सारे आभूषण आज गायब हैं। हम दोनों यहीं सो रही थीं। परन्तु प्रतीत होता है कि चोर ने हम दोनों को किसी औषधि से निद्रित कर अपना काम पूरा किया ।'
कलावती बोली- 'दोनों द्वार-रक्षिकाएं भी वहीं निद्राधीन होकर पड़ी हैं।' 'तब तो यह काम सर्वहर चोर का ही लगता है। मैं नगर में घूमता रहा और वह यहां आ पहुंचा' - कहकर वीर विक्रम विचारमग्न हो गए।
राजसभा का समय हो चुका था। विक्रम ने अजय को बुलाकर नगररक्षक और महामंत्री को बुलाने की व्यवस्था करने की आज्ञा दी। लगभग दो घटिका के पश्चात् नगररक्षक और महामंत्री आ पहुंचे। वीर विक्रम ने राजभवन में हुई चोरी की बात बताई।
३५४ वीर विक्रमादित्य