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'स्वामी!'
'चिन्ता का कोई कारण नहीं है। मैं आऊंगा उससे पहले तुम्हारे मातापिता यहां पहुंच जाएंगे।' कहकर विक्रम दोनों दंड और अपना थैला लेकर चला। उपवन में पंडितजी और सभी विद्यार्थी विक्रम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
वीर विक्रम को खाली हाथ आते देखकर पंडितजी उठ खड़े हुए और सामने जाकर बोले- 'क्यों, क्या हुआ ?'
विक्रम बोला-'गुरुदेव! नगरी जनशून्य है, फिर भी स्थान मिल गया है। आप सब मेरे साथ नगरी में चलें । मैं कुछ ही समय में स्नान आदि से निवृत्त होकर आ जाता हूं।'
ऐसा ही हुआ।
सभी राजभवन के विशाल अतिथिगृह में आए, तब तक अग्निवैताल राजकन्या के पारिवारिक जनों को अपनी दैवी शक्ति से वहां ला चुका था और वह विक्रम की प्रतीक्षा में बाहर अदृश्य रूप से खड़ा था।
__ जैसे ही विक्रम आया, अग्निवैताल आकर बोला-'महाराज, राजकन्या का पूरा परिवार आ गया है। दास-दासी भी आ गए हैं। एक-दो सप्ताह में यह नगरी पूर्ववत् हो जाएगी। अब कोई दूसरी आज्ञा हो तो...'
'आज तुम्हें अपनी प्रिया का भय नहीं लगता, क्यों?' _ 'हां, महाराज! अभी तो मैं वियोग के अग्निकुंड के पास ही बैठा हूं। चार दिन पूर्व ही वह अपने पीहर गई है। वह अभी वहां एक महीना रहेगी।' __मित्र! तुम्हारे वियोग की पीड़ा में मेरी सहानुभूति है।'
'आपकी सहानुभूति से मुझे शांति मिलेगी-किन्तु आप जहां जाते हैं, वहां मिलन की कोई-न-कोई कविता निर्मित हो ही जाती है।'
_ 'क्या करूं? राजकन्या चन्द्रावती भी अभिग्रह कर बैठी है। अब मित्र! तुम एक काम करो, पंडितजी की पत्नी उमादे क्या कर रही है, उसकी खबर ले आओ। हम सब क्षुधातुर हैं। इस नगरी में कुछ भी मिलने वाला नहीं है।'
'आप निश्चिन्त रहें, सोपारक नगरी से ही मिठाई ले आता हूं।' कहकर वैताल चला गया।
पंडितजी यह बात सुनकर अवाक रह गए। उन्हें प्रतीत हुआ, यह वल्लभ कोई असाधारण पुरुष है। उन्होंने विक्रम की ओर देखकर पूछा-'आपका असली परिचय.....?'
'आप जो जानते हैं, उससे भिन्न ही हं । मैं अवंती का राजा विक्रमादित्य हं और एक विशेष प्रयोजन से आपके यहां आया था।'
वीर विक्रमादित्य २६६