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लक्ष्मी कुछ बोले, इससे पूर्व ही एक दासी ने आकर रूपश्री से कहा'मदनकुमार आपसे मिलने आए हैं।'
_ 'वाह ! याद करते ही आ गया। इसकी उम्र सौ वर्ष की लगती है। पहले तू अपनी नूतन स्वामिनी के लिए दूध और मिठाई ले आ। मैं मदन के पास जा रही हूं।' फिर रूपश्री ने लक्ष्मी की ओर देखकर कहा- 'बेटी! जिस लहरी युवक की मैं बात कह रही थी, वह अभी मिलने आ गया है। तू कुछ खा-पीकर स्वस्थ हो जा। फिर मैं उसका परिचय कराऊंगी।' ___दासी बाहर चली गई। रूपश्री भी खंड से बाहर निकली और द्वार पर सांकल लगाकर सोपान-श्रेणी की ओर चली गई।
लक्ष्मी असमंजस में फंस गई। भाग्यवश स्वयं के पास कोई शस्त्र भी नहीं था। वह विचारमग्न होकर एक आसन पर बैठ गई। वह सोचने लगी, इस विपत्ति से कैसे मुक्ति पायी जाए? मेरे जुआरी पति मुझे वहां न पाकर निराश हो गए होंगे। मेरी खोज करने वे पुन: नगरी में गए होंगे...अब मैं उनसे कैसे मिल पाऊंगी? ओह! भाग्य जब विपरीत होता है तब कैसी विपत्ति आ जाती है ? अब मैं क्या करूं? यह वेश्या किसी भी उपाय से समझ नहीं रही है। एक बार इसके समक्ष प्रार्थना करके देख तो लूं...
इस प्रकार लक्ष्मी विचार कर ही रही थी कि दासी दूध और मिष्ठान्न लेकर पहुंच गई।
लक्ष्मीवती ने कहा- 'बहन! मुझे कुछ भी नहीं खाना है। यदि तेरे में कुछ करुणा हो तो मुझे इस भवन से बाहर निकलने का उपाय बता । मैं तेरा उपकार कभी नहीं भूलूंगी।'
ये शब्द सुनकर दासी कांप उठी। वह लक्ष्मी के चेहरे पर उभरी दीनता को स्पष्ट देख रही थी। वह बोली- 'देवी ! मैं एक दासी हूं। क्या कर सकती हूं? यदि आपको यहां से निकलने दूं, तो मेरी स्वामिनी मेरी हड्डी-पसली तोड़ देगी।'
'तो बहन ! मुझे एक छुरी लाकर दे। मैं आत्महत्या कर इस पापगृह से छुटकारा पा लूंगी। भगवान् तेरे पर कृपा करेंगे।'
दासी सोच में पड़ गई। वह बोली- 'देवी ! एक काम करें। मुझे उत्तरीय से बांधकर, आप यहां से निकल जाएं।'
लक्ष्मी ने दासी के उत्तरीय से उसके पैर बांध डाले।
दासी बोली-'देखो, सामने के कोने में एक कपड़ा पड़ा है, उसे मेरे मुंह में ढूंसकर, मेरे हाथ बांध दो।'
वीर विक्रमादित्य २६६