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तनिक भी भय नहीं है। मैंने कल देवदमनी से कहा था कि मैं हारने के लिए ही खेल
रहा हूं।'
दोनों रानियां अपने महान स्वामी के तेजस्वी वदन की ओर देखने लगीं।
फिर वीर विक्रम मंत्रणा-गृह में गए। द्वार बन्द कर उन्होंने अपने मित्र अग्निवैताल को याद किया।
आंखें बन्द कर स्थिर मन से वैताल को याद करते ही कुछ क्षण में चिरपरिचित हास्य विक्रम को सुनाई दिया। विक्रम ने आंखें खोलकर देखा तो वैताल उस मंत्रणा-गृह में सामने खड़ा-खड़ा हंस रहा था।
विक्रम ने प्रसन्नता से वैताल का स्वागत किया और अपने पास बिठाते हुए कहा-'चित्त तो स्वस्थ है न!'
'हां, मित्र! चित्त अत्यन्त प्रसन्न है, किन्तु एक कठिनाई है' -कहकर वैताल हंस पड़ा।
'तुम्हारे कठिनाई.....?'
'हां, महाराज! पत्नी तो एक ही है, किन्तु उसका बंधन एक हजार पत्नियों जितना है। उसकी आज्ञा-पालन में ही मुझे रुक रहना पड़ता है।'
'यह कोई कठिनाई नहीं है, यह तो स्नेहमय मधुर बंधन है। प्रियतम को प्रिया के और प्रिया को प्रियतम के बंधन में बंधे रहना ही सहजीवन का सच्चा
सुख है।'
'किन्तु प्रिया-प्रिया के बीच आकाश-पाताल का अन्तर होता है। फिर भी मुझे एक बात से आश्वासन मिलता रहता है।' वैताल ने कहा।
"किस बात से ? प्रिया के बाहुबंधन.... ।' विक्रम बोले।
'नहीं-नहीं, महाराज! मुझे जब आप याद आते हैं, तब आश्वासन मिल जाता है।'
'मैं समझा नहीं।'
'एक प्रिया के बंधन से ही मैं गले तक भर गया हूं, तो फिर तीस प्रियाओं के बीच रहने वाले आपकी क्या स्थिति होती होगी? बस, यह विचार आता है और मुझे संतोष मिल जाता है।' वैताल ने कहा।
विक्रम ने हंसते हुए कहा-'मित्र! तीस-तीस पत्नियां होते हुए भी मैं पूर्ण मुक्त हूं और इकतीसवीं प्रिया को प्राप्त करने के लिए तुम्हें याद करना पड़ा है।'
'महाराज! आपने क्या सोचा है?'
"भाई! मेरी बात सुनो', कहकर विक्रम ने नागदमनी, देवदमनी, शतरंज का खेल, शर्त और सफलता का उपाय-ये सारी बातें वैताल को कह सुनाई।
वीर विक्रमादित्य २२१