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'मुझे याद है, देवी!'
'आज दूसरा खेल प्रारम्भ हो रहा है। यदि आप इसको जीत जाएंगे तो पहले खेल की मेरी जीत निष्फल होगी और यदि आप हार जाएंगे तो मुझे तीसरा खेल भी जीतना होगा ।'
वीर विक्रम ने मुस्कराते हुए कहा - 'सुन्दरी ! यदि तुम यह जानती हो कि पंचदंड वाले छत्र की बात जानने के लिए ही मैं यह प्रयत्न कर रहा हूं तो तुम यह बात मन से निकाल देना। पंचदंड वाले छत्र की बात ज्ञात हो जाए तो अच्छा है, किन्तु मन में उसके विषय में कोई आग्रह नहीं है।'
'तो फिर यह शर्त क्यों की आपने ?' देवदमनी ने आश्चर्यभरी दृष्टि से विक्रम की ओर देखते हुए पूछा ।
वीर विक्रम ने हंसते हुए कहा - 'देवदमनी ! तुम बुद्धिमान हो, तेजस्वी हो और दूसरे के मन को पढ़ने में चपल हो। फिर भी मैं शतरंज का यह अनोखा खेल क्यों खेल रहा हूं, यह तुम नहीं समझ सकोगी।'
देवदमनी का आश्चर्य बढ़ा |
नागदमनी मध्यस्थ भाव से चुप बैठी थी। वह बोल उठी- 'पृथ्वीनाथ ! आपने तो पंचदंड की ही बात कही थी।'
'ठीक है। यह मैंने एक निमित्त बनाया था। मैं जानता था कि तुम्हारी पुत्री शतरंज खेलने में अति निपुण है, फिर भी मैंने शर्त मान ली ।'
‘क्यों, महाराज ?’ देवदमनी ने पूछा ।
‘हारने के लिए, सुन्दरी ! एक तेजस्विनी नारी का पूरा परिचय प्राप्त करने के लिए मेरे समक्ष दूसरा कोई उपाय नहीं था। मैं मालव का राजा हूं। तुम मेरी प्रजा
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हो । किसी का दिल दुखाना दोष है। जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा तो मेरे मन में यह जिज्ञासा जागी कि तुम्हारे जैसी देवदुर्लभ सुन्दरी के परिचय में आना चाहिए। एक राजा होने के कारण दूसरे किसी भी प्रकार से मैं परिचय प्राप्त नहीं कर सकता । मेरी भावना के लिए पंचदंड की बात सहायक सिद्ध हुई। मुझे लगा कि तुम्हारे साथ जितने दिन शतरंज खेलने में बीतेंगे, वे मेरे जीवन के अविस्मरणीय दिन होंगे।' देवदमनी लज्जारक्त वदन से नीचे देखने लगी ।
नागदमनी ने कहा- 'कृपानाथ ! आपने प्रतिष्ठा और कीर्ति को दांव पर लगा दिया। निश्चित ही आपने लोकनिन्दा की परवाह नहीं की ।'
बीच में ही विक्रम बोले- ‘नागदमनी! ऐसे देवदुर्लभ कन्यारत्न को प्राप्त करने के लिए मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं। मनुष्य जब भावना के प्रवाह में बहता है, तब मान, प्रतिष्ठा, कीर्ति – ये सब गौण हो जाते हैं और देखो, इस शर्त की पृष्ठभूमि में आशा की एक किरण भी थी।'
२१८ वीर विक्रमादित्य