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हो, अलंकार हो, किन्तु मंदिर से कोई चोर भी चोरी नहीं करता था। जहां मनुष्य छोड़ना सीखता है, वहां चोरी कैसे की जाए?
वीर विक्रम ने द्वार खोलकर अन्दर प्रवेश किया। अंधकार सघन था, भीतर का अंधकार और अधिक गहरा था। वीर विक्रम ने गर्भद्वार खोला-क्षेत्रपाल की मूर्ति अंधकार में अदृश्य हो गई थी। आंखें बन्द कर वीर विक्रम ने क्षेत्रपाल का स्मरण प्रारम्भ किया। अर्ध घटिका के बीतते-बीतते दो दीपक अपने आप जल उठे। उनके प्रकाश में विक्रम ने देखा कि क्षेत्रपाल की भयानक मूर्ति साक्षात् रूप धारण कर बोल रही है-'आओ राजन् ! मुझे क्यों याद किया है?'
विक्रम ने क्षेत्रपाल को देखकर मस्तक नमाया, फिर कहा-'आप राजा और राज्य के रक्षक हैं, इसलिए आपके पास आया हूं। मैं एक विपत्ति में फंस गया हूं।'
क्षेत्रपाल ने हंसते हुए कहा-'राजन्, मैं तुम्हारी विपत्ति को जानता हूं। तुमने बहुत साहस किया है। देवदमनी एक सुन्दरी है और वह मंत्रशक्ति से देवताओं को भी बंधनग्रस्त करने में समर्थ है। राजन् ! तुमने उसके साथ शर्त करने में उतावल की। देवदमनी को देवता भी नहीं पहुंच सकते।'
'महाराज! कुछ भी कहें, मैंने एक आशा के तंतु के सहारे उससे शर्त की है। मैं हार जाऊं, इसका मुझे खेद नहीं है। किन्तु मैं जो पाना और जानना चाहता हूं, वह मुझे प्राप्त नहीं होगा तो बुरा होगा। मैं समझता हूं कि हार जाने पर मेरी निन्दा होगी और देवदमनी का महत्त्व बढ़ेगा किन्तु लोकनिन्दा अल्पस्थायी होती है। कुछ दिनों में वह मिट जाती है। फिर भी मैं देवदमनी को जीतना चाहता हूं। आप मुझे जीत का उपाय बताएं।'
क्षेत्रपाल कुछ क्षणों तक मौन रहें। फिर वे प्रसन्न स्वरों में बोले-'वीर विक्रम! तुम वास्तव में ही भाग्यशाली हो। प्रतिवर्ष देवदमनी सिकोत्तरी देवी के समक्ष फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी की रात में नृत्य करती है। वह रात परसों ही है। परन्तु....।'
'आप कहते-कहते रुक क्यों गए?' विक्रम ने आशाभरी दृष्टि से पूछा।
'राजन् ! जिस स्थान पर यह नृत्य होता है, वह स्थान यहां से दो सौ योजन दूर है और वहां पहुंचने के लिए समय है नहीं।'
'देवदमनी वहां कैसे पहुंचती है?' विक्रम ने पूछा।
क्षेत्रपाल ने कहा- 'वह कुछ ही क्षणों में वहां पहुंच जाती है। उसकी शक्ति अपार है।'
'देवराज, मैं भी वहां कुछ ही क्षणों में पहुंच जाऊंगा। आप मुझे स्थान का निर्देश करें और मुझे क्या करना है, वह बताएं।'
२१६ वीर विक्रमादित्य