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वीर विक्रम ने देवदमनी की ओर देखकर कहा-'देवी! तुम्हारे साथ खेलकर हारने में भी मुझे आनन्द आएगा, यही मानकर मैं खेलने बैठा हूं। मैं हारूंगा तो कोई चिन्ता की बात नहीं है। तुम हारोगी तो मुझे तुम-जैसा नारीरत्न प्राप्त होगा। अब तुम पहली चाल चलो।'
देवदमनी बोली-'कृपानाथ! मेरा प्रारंभ अति खतरनाक होता है, इसलिए मैं आपको पहला अवसर देना चाहती हैं।'
'देवदमनी! तुम्हारे खतरनाक प्रारम्भ की मुझे चिंता नहीं है। कुछ भी हो, तुम एक नारी हो और मेरी अतिथि हो। मुझे अतिथि के गौरव का संरक्षण करना ही होगा।'
देवदमनी हंस पड़ी। वह कुछ नहीं बोली। खेल प्रारम्भ हुआ। उसने पहले चार चालें चलीं। विक्रम ने उसका सुन्दर उत्तर दिया। नागदमनी ने देखा कि वीर विक्रम ने देवदमनी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए एक पाल बांधी है।
शतरंज का खेल जितना शांत है, उतना ही आनन्ददायी है। शतरंज खेलने वाले भूख-प्यास को भूल जाते हैं। जब संध्याकालमेंदोघटिकाएं शेष रहीं तब देवदमनी ने जान लिया कि विक्रम भी कोई निर्बल खिलाड़ी नहीं हैं।
खेल अधूरा रहा। मां-बेटी दोनों अपने घर चली गईं। इसी प्रकार खेलतेखेलते चार दिन बीत गए। इन चारों दिनों में एक बार भी खेल पूरा नहीं हुआ। किन्तु लोगों में बहुत ऊहापोह होने लगा। रात्रि में जब वीर विक्रम नगरचर्चा सुनने के लिए निकलते तब स्थान-स्थान पर उन्हें स्वयं के विषय की हास्यास्पद बातें सुनने को मिलती।
____ पांचवे दिन खेल ने रंग बदला। देवदमनी चार दिनों तक केवल विक्रम की चालों को जानने मात्र के लिए खेल रही थी। आज उसने आक्रमणात्मक खेल खेला। विक्रम आक्रमण को देखकर चौंके। फिर भी वे निपुण खिलाड़ी थे। धैर्यपूर्वक उन्होंने आक्रमण का सामना किया, किन्तु यह आक्रमण एक सामान्य खिलाड़ी का नहीं, एक जादूगरनी का आक्रमण था।
संध्या से पूर्व विक्रम बाजी हार गए। विक्रम ने खेदपूर्वक देवदमनी की ओर देखकर कहा- 'देवी! मैं सबसे पहले तुम्हारी विजय का अभिनन्दन करता हूं।'
देवदमनी बोली- 'कृपानाथ ! मैं धन्य हुई। मुझे प्रतीत होता है कि दोतीन दिनों में ही खेल समाप्त हो जाएगा।'
विक्रम ने हंसकर कहा-'और वह भी तुम्हारी विजय से!' 'आप सच कहते हैं। नारी कभी पराजित नहीं होती।' विक्रम ने देवदमनी के सुन्दर वदन की ओर देखा।
२१४ वीर विक्रमादित्य