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________________ विक्रम ने कहा – ‘प्रिये ! क्या तुम्हारे मन में किसी प्रकार का हठाग्रह तो नहीं है ?' 'नहीं, कैसा हठाग्रह ?' 'राजा-महाराजाओं के प्रति घृणाभाव ।' 'ओह!' कहकर सुकुमारी विक्रम से लिपटकर बोली- 'स्वामिन्! आप न राजा हैं और न मैं राजरानी हूं - फिर चिन्ता क्यों करें ?' विक्रम ने सोचा, चर्चा को लम्बी करने पर संभव है मेरा परिचय इसे प्राप्त हो जाए और यह अत्यन्त दुःखी हो जाए। उन्होंने प्रिया का चुम्बन लेते हुए कहा'सुकुमारी ! आज मुझे परम संतोष का अनुभव हो रहा है कि तुम्हारे दिल में राजरानी न होने का दुःख नहीं है ।' 'तो क्या आप मेरी परीक्षा ले रहे थे ?' - ‘हां, तुम्हारे मन को समझने के लिए।' 'समझ लिया ?' 'हां, उचित रूप से ।' 'कैसा है ?' ‘निर्मल कांच-जैसा स्वच्छ और पारदर्शक ।' विक्रम ने पत्नी को हृदय से लगाते हुए कहा । एक सप्ताह आनन्दपूर्वक बीत गया। विक्रमादित्य ने सोचा कि सुकुमारी को परिचय देने में भारी खतरा हैऔर यहां अधिक रुकना भी शक्य नहीं । क्या करना चाहिए ? हां, सुकुमारी सगर्भा है ? - काल बीतने पर वह मां बनेगी.... इसका समय बालक के लालन-पालन में सहजता से बीतता रहेगा । इस प्रकार विक्रमादित्य के मन में अनेक संकल्प-विकल्प उठने लगे। एकएक कर दिन बीतते गए। सुकुमारी की गर्भावस्था का तीसरा महीना चल रहा था । सर्वत्र आनन्द छा रहा था। एक दिन विक्रमादित्य ने अपनी राजमुद्रिका तथा एक ताड़पत्र में अपना परिचय अंकित कर एक पेटिका में रख दिया। उस पेटिका को अपनी प्रियतमा को देते हुए कहा - 'प्रिये ! इस पेटिका को तुम अपने प्राणों की भांति संजोकर रखना । एक-दो दिन के बाद मुझे चार-छह महीनों के लिए प्रवास में जाना पड़ेगा ।' 'चार-छह महीनों का प्रवास ?' १३६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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