________________
शीतऋतु का अंतकाल था । वसंतऋतु का प्रारम्भ निकट था। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा होते ही महारानी विजया पुत्री के भवन से निकलकर राजभवन की तरफ विदा हो गई। माता को विदा कर सुकुमारी स्वामी के कक्ष में आयी । पत्नी को देखकर विक्रम ने हर्ष भरे स्वरों में कहा- 'आज तो माता को बहुत समय तक रोके रखा ?'
'नहीं, स्वामिन्! माताजी तो संध्या के पश्चात् यहां आयी थीं - आप कब पधार गए ?' कहकर सुकुमारी विक्रम के पास बैठ गई ।
'मैं अभी-अभी लौटा हूं। आज महामंत्री के भवन पर चला गया था' - विक्रम ने सुकुमारी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
'हमारे महामंत्री बहुत बुद्धिमान हैं ।' राजकुमारी ने कहा ।
'पुण्यवान और परम धार्मिक राजाओं को मंत्री भी श्रेष्ठ ही मिलते हैं। उनकी संतान भी उत्तम होती है। तुम्हारे भाई कितने सुन्दर और तेजस्वी हैं। और तुम्हारी बात ही क्या, देवी सरस्वती के शब्दकोश में भी वे शब्द नहीं हैं, जिनसे तुम्हारा वर्णन कर सकूं ।'
'रहने दो - मेरे में ऐसा क्या देखा है ?'
'बताऊं ?'
सुकुमारी ने तिरछी नजरों से देखकर 'हां' कहा।
'प्रिये ! रंभा, मेनका और उर्वशी स्वर्ग की श्रेष्ठ सुन्दरियां मानी जाती हैं। शास्त्रकारों ने इनका भरपूर वर्णन किया है। कवियों ने इन सुन्दरियों को माध्यम बनाकर शृंगार-रस के अनेक काव्य रचे हैं। इतना होने पर भी इन तीनों अप्सराओं को आज तक किसी ने नहीं देखा - बिना देखे ही इनकी प्रशंसा की जा रही है। तुम तो मेरी आंखों के सामने हो- तुम्हारा रूप, यौवन, देह, गमन, नयन- कटाक्ष, वाणी और वदन- ये सब स्वर्ग की रूपसियों से भी श्रेष्ठ हैं । '
'बस-बस, मेरे नजर न लग जाए - अति प्रशंसा घातक होती है।' सुकुमारी ने कहा ।
‘प्रिये ! मैं अतिशयोक्ति या प्रशंसा नहीं कर रहा हूं। मैं मात्र यथार्थ बात कह रहा हूं। मैं तुम्हें प्राप्त कर पूर्ण सुखी हूं, किन्तु एक चिन्ता मेरे मन को व्यथित कर रही है ।'
'faral?'
'हां, प्रिये ! वैसी चिन्ता जो किसी को बताई नहीं जा सकती।'
'मुझे भी नहीं ?'
'तुम तो मेरी अंगभूत हो... जीवन हो... तुम्हारे से छिपाऊं ऐसी वस्तु क्या है ?'
१३४ वीर विक्रमादित्य