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'मुझे याद है, सखी! तुम्हारे प्रश्न के पीछे कुछ तथ्य भी हैं। किन्तु मेरा अनुभव इतना दु:खद है कि मेरे मन में पुरुष जाति के प्रति जो घृणा है, वह मिट नहीं सकती। जिस पुरुष जाति ने छह-छह जन्मों तक मेरे साथ तनिक भी प्रीति नहीं रखी, मेरे समर्पण की मर्यादा की रक्षा नहीं की, उस पुरुष जाति के प्रति मेरे प्राणों में सद्भाव कैसे हो सकता है?'
'देवी ! क्षमा करें, एक बात मैं कहना चाहती हूं।' 'कहो।'
'केवल छह पुरुषों के अनुभव के आधार पर सम्पूर्ण पुरुष-जाति के प्रति घृणा करना उचित नहीं हो सकता। यह तो सरासर अन्याय ही कहा जाएगा। यहां संसार में कुछेक स्त्रियां वेश्यावृत्ति से जीवनयापन करती हैं तो क्या संसार की सारी स्त्रियां घृणा की पात्र बन जाती हैं ? आपके अनुभव को मैं असत्य या काल्पनिक नहीं मानती। मैंने भी सुना है कि जाति-स्मृति-ज्ञान से पूर्वभवों का स्मरण होता है
और सारे दृश्य आंखों के सामने तैरने लग जाते हैं। यदि मैं अपने पूर्वभवों का अनुभव सुनाऊं तो आपको लगेगा कि स्त्री-जाति घृणा के योग्य है।' ___ 'क्या तुम्हें जाति-स्मृति-ज्ञान हुआ था?'
__ 'नहीं, राजकुमारीजी ! मेरे जैसी गणिका के लिए वह सशक्य नहीं तो कठिन अवश्य है, किन्तु मैं एक कल्पना आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूं- मैंने अपने इस छोटे-से जीवन में बहुत देखा है, बहुत सुना है, क्योंकि मेरा व्यवसाय है गणिका का। मुझे कला के साथ जीना होता है और अनेक पुरुषों से परिचय करना होता है। कोई पुरुष मेरे रूप को देखने आता है और कोई मधुर कंठ को सुनने आता है। कोई पुरुष मेरी कला को परखने आता है, तो कोई रूप-यौवन का अभिनंदन करने आता है। फिर भी मेरे मन में पुरुष-जाति के प्रति कभी घृणा नहीं होती, पर करुणा अवश्य आती है।'
'करुणा!' ___'हां, देवी! अनेक पुरुष ऐसे होते हैं जो पत्नी के स्वभाव से अत्यन्त दु:खी जीवन बिताते हैं और उसको कुछ हल्का करने के लिए वे नगरवधुओं के पास आते हैं। कुछ पुरुष ऐसे होते हैं जो घर में पतिव्रता सुन्दर पत्नी होने पर भी बाहर भटकते रहते हैं- वास्तव में ऐसे सभी पुरुष दया के पात्र हैं, क्योंकि वे असली गुलाब को छोड़कर कागज के गुलाब की ओर दौड़ते हैं।'
राजकुमारी ने बीच में ही प्रश्न करते हुए पूछा- 'व्यवसाय की दृष्टि से तुम्हें अनेक पुरुषों से परिचय प्राप्त हुआ होगा? क्या तुम्हें ऐसा कोई पुरुष नहीं मिला, जिसने वचनभंग कर तुम्हारे कोमल हृदय को पीड़ित किया हो ?'
वीर विक्रमादित्य १०५