SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में शश-श्रृंग नहीं हैं तो उनका वाचक शुद्ध शब्द भी नहीं है। जिसका नाम नहीं होता, उसकी आकृति भी किसी प्रकार बन नहीं सकती। जिसका नाम अथवा आकार दोनों नहीं होते उसकी पूर्वापर अवस्था और वर्तमान अवस्था रूप पर्याय के आधारभूत द्रव्य भी नहीं होता; जहाँ नाम, स्थापना तथा द्रव्य इन तीनों का अभाव होता है, वहाँ वस्तु का भाव या गुण तो हो ही कैसे सकता है? इसलिए नामादि निक्षेप विहीन किसी पदार्थ का इस जगत् में अस्तित्व होता ही नहीं है। अतः द्रव्यादिक तीनों निक्षेपों को माने बिना केवल भावनिक्षेप को मानने की बात शशश्रृंगवत् कल्पित है। जिसका नाम, उसी की स्थापना, जिसकी स्थापना उसी का द्रव्य, उसी का भाव। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में चारों निक्षेप एक साथ रहे हुए हैं। किसी भी वस्तु को पहचानने के लिए सर्वप्रथम उसका नाम जानने की आवश्यकता होती है, यह नामनिक्षेप है। नाम जान लेने के पश्चात् उसी वस्तु की विशेष पहचान के लिए उसकी आकृति, आकार अथवा स्थापना जानने की जरूरत होती है, वह स्थापनानिक्षेप है। उसी वस्तु के सम्बन्ध में उससे भी अधिक ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके गुण-दोष बताने वाली उसकी आगे-पीछे की अवस्था का निरीक्षण करना पड़ता है, उसको द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है तथा इन तीनों निक्षेपों के स्वरूप का प्रत्यक्ष बोध कराने वाली साक्षात् जो वस्तु है, उसे भावनिक्षेप माना जाता है। भाव निक्षेप का यथार्थ ज्ञान करने के लिए प्रथम के तीनों निक्षेपों के ज्ञान की आवश्यकता होती है। जंगल में अमूल्य वनस्पतियाँ होते हुए भी जिनके नाम तथा आकारादि का ज्ञान नहीं होता है, उनके गुणों का भी ज्ञान नहीं हो सकता है। नामादि तीनों निक्षेपों के ज्ञान से विहीन आत्मा के लिए भावनिक्षेप को विपरीत रूपसे ग्रहण करने की अधिक सम्भावना है। जिसयालक को सोमल अथवा सर्प आदि विषमय वस्तु के नाम, आकार आदि का ज्ञान नहीं होता, ऐसा अज्ञानी बालक साक्षात् सोमल या सर्प वगैरह से यच नहीं सकता। इससे सिद्ध होता है कि भाव का साक्षात् ज्ञान कराने वाला अकेला भाव नहीं पर उसका नाम, आकार तथा पूर्यापर अवस्था, ये सब मिलकर ही किसी भी पदार्थ के भाव का निश्वित योध कराते हैं। . केवल भावनिक्षेप को मानकर जो नाम आदि निक्षेपों को मानने से इन्कार करते हैं, उन्हें कोई दुष्ट व्यक्ति उनके पूज्य या प्रिय व्यक्ति का नाम लेकर निंदा करे, गाली दे या तिरस्कार करे तो क्या उनको क्रोध नहीं आता? अथवा उसी पूज्य या प्रिय व्यक्ति के नाम से उनकी तारीफ करे तो क्या खुशी नहीं होती? अवश्य होती है। अत: नामनिक्षेप व्यर्थ है, ऐसा 56
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy