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________________ पहुँच जायें, ऐसा कोई नियम नहीं है। सर्वविरति अंगीकार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसी भव में मोक्षप्राप्ति नहीं होती तो भी सर्वविरति की आराधना निष्फल नहीं मानी जाती। इस प्रकार कई भवों तक विराधना का वर्जन तथा आराधना का सम्पादन होने के पश्चात् ही सर्वविरति भवान्तर में मोक्ष प्रदान करती है। इसी प्रकार अविधि से बचता हुआ और विधि का पालन करता हुआ द्रव्यपूजा करने वाला साधक भवान्तर में सुगमता से सर्वविरति तक पहुँच सकता है; क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा करने वाला इनके राज- वैभव अथवा सुखसमृद्धि को सम्मुख रखकर उनको नहीं पूजता परन्तु वह तो आरम्भ समारम्भ और विषय - कषाय के पूर्ण त्याग से सेवित अनगारपने की पूजा करता है । इस प्रकार भगवान का पूजन सर्वविरति आदि गुणों की ओर अत्यन्त श्रद्धा धारण करके होता है अतः वह सर्वविरति को दिलाने वाला होता है। क्या प्रभु-पूजा के अर्थी हैं? किसी को ऐसा तर्क सम्भव है "श्री जिनेश्वरदेव हिंसा का त्याग करने के लिए साधुओं को संसार-त्याग का उपदेश दें, तीव्र कष्टों को सहन करने का कहें तथा अन्त में प्राणत्याग तक की बात कहे पर अपनी स्वयं की पूजा के लिए हिंसा आदि हो तो भी इसका निर्जरादि फल बतावें तो क्या यह उचित है ?" इसका जवाब है कि दूसरे मतों की अपेक्षा जैन मत में श्री जिनेश्वर ऐसी कोई एक आत्मा नहीं है। ऐसी आत्माएँ अनन्त हो गई हैं और अनन्त होने वाली हैं। इन सब आत्माओं की पूजनीयता का निरूपण करना तथा उसमें व्यक्तिगत पूजा के हेतु की कल्पना करना, सर्वथा विरुद्ध है। समुदाय की भक्ति के निरूपण में व्यक्तिगतं पूजा के प्रवर्तकपने की कल्पना करना भयंकर दोषदृष्टि है। कोई सज्जन, दुर्जन की संगति से होने वाली हानियाँ तथा सज्जन की संगति से होने वाले लाभ बतावे, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ऐसा कहकर वह अपनी महत्ता बताने का प्रयत्न करता है। उसी प्रकार ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सुपात्र दान का उपदेश देने वाला साधु स्वार्थी है। कोई साधु उपदेश देते समय यह कहे कि साधु महात्मा के नाम- गोत्र के श्रवण मात्र से बहुत लाभ होता है, उनके सम्मुख जाकर वन्दन - नमन करने, सुखशाता पुछने तथा उनकी अनेक प्रकार से पर्युपासना करने में अत्यधिक लाभ है । यह उपदेश किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य कर नहीं दिया गया है, अतः ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उपदेशक अपनी स्वयं की पूजा का अभिलाषी है। साथ ही हम यह भी नहीं कह सकते कि साधु के सम्मुख जाने आदि 33
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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