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( मकान ) जिस प्रकार अपूजनीय है, इसी प्रकार जिसकी प्रतिमा है वह स्थाप्य भी यदि अवन्दनीय / अपूजनीय होता तो अवश्य उसकी प्रतिमा का पूजन आदि निरर्थक ठहरता, परन्तु यहाँ तो स्थापना के विषय में स्थाप्य, परम उपास्य है।
साक्षात् आराध्य की उपासना से उपासक जिस प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त करता है; उसी प्रकार स्थाप्य की प्रतिमा की उपासना से भी उसकी कार्यसिद्धि होती है।
यदि मूल वस्तु पूजनीय है तो उसका नाम भी पूजनीय बन जाता है। ऐसी स्थिति में उसका आकार आदि भी पूजनीय बन जाए तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
मंगल-कामना
नेत्रानन्दकरी भवोदधितरी श्रेयस्तरोर्मञ्जरी, श्री मद्धर्ममहानरेन्द्रनगरो, व्यापल्लताधूमरी । हर्षोत्कर्षशुभप्रभावलहरी, रागद्विषां जित्वरी, मूर्तिः श्री जिनपुङ्गवस्य, भवतु, श्रेयस्करी देहिनाम् ||१||
श्री जिनेश्वरदेव की मूर्ति भक्तजनों के नेत्रों को आनंद पहुँचाने वाली है, संसार रूपी सागर को पार करने के लिये नाव समान है, कल्याणरूपी वृक्ष की मंजरी जैसी है, धर्म रूप महा नरेन्द्र की नगरी तुल्य है, नाना प्रकार की आपत्ति रूपी लताओं का नाश करने के लिये धूमरी-धूमस जैसी है, हर्ष के उत्कर्ष के शुभ प्रभाव का विस्तार करने में लहरों का काम करने वाली और राग तथा द्वेष रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराने वाली है, ऐसी श्री जिनेश्वरदेव की मूर्ति - जगत् के
जीवों का कल्याण करने वाली बनो!
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