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(9) त्वद्रूपं परिवर्तता हृदि मम ज्योतिःस्वरूपं प्रभो! तावद् यावदरूपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत् । यत्रानन्दघने सुरासुरसुखं संपीडितं सर्वतो,
भागेऽनन्ततमेऽपि नैति घटनां कालत्रयीसंभवि।। हे प्रभो! पाप-नाशक, उत्तम पदस्वरूप और.रूपरहित ऐसा अप्रतिपाती ध्यान जब तक प्रकट नहीं हो जाता तब तक मेरे हृदय में आपका रूप अनेक प्रकार से ज्ञेयाकार रूप से परिणाम को प्राप्त हो! जो आनन्दघन में त्रिकालसम्भवी और सभी ओर से एकत्रित सुरअसुर का सुख अनन्तवें भाग का भी नहीं है ॥9॥
(10) स्वान्तं शुष्यति दहते च नयनं भस्मीभवत्याननं, दृष्ट्वा ततातिमामपीह कुधियामित्याप्तलुप्तात्मनाम्। अस्माकं त्वनिमेषविस्मितदृशां रागादिमां पश्यतां,
सान्द्रानन्दसुधानिमज्जनसुखं व्यक्तीभवत्यन्वहम् ॥ जिनप्रतिमा के विषय में जिनकी आत्मा खंडित हुई है ऐसे दुर्बुद्धियों का हृदय इस प्रतिमा को देखकर सूख जाता है, नेत्र जल उठते हैं और मुँह भस्मीभूत हो जाता है, जबकि प्रेम से इस प्रतिमा को अनिमेष दृष्टि से देखते, हमको तो आनन्दघन अमृत में डूबने का सुख निरन्तर प्रगट होता है 10n"
(11) मन्दारद्रुमचारुपुष्पनिकरैर्वृन्दारकैरर्चिता, सवृंदाभिनतस्य निर्वृतिलताकन्दायमानस्य ते। निस्यन्दात् रूपनामृतस्य जगती पान्तीममन्दामया
वस्कन्दात् प्रतिमां जिनेन्द्र! परमानंदाय वन्दामहे॥ हे जिनेन्द्र! उत्तम पुरुषों के द्वारा नमस्कृत एवं मुक्ति रूपी लता के कन्द समान आपकी प्रतिमा, जिसको देवताओं ने मंदार वृक्ष के पुष्पों से पूजी है और जो उग्र रोग का शोषण करने वाले स्नात्रजल रूप अमृत के झरने से सारे जगत् की रक्षा करती है, ऐसी प्रतिमा को हम परम आनन्द (मोक्ष) के लिए वन्दना करते हैं ॥11॥
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