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________________ जिस मूर्ति अथवा आकृति का आश्रय लेकर अपना काम निकाला उसी मूर्ति का अनादर करना बुद्धिमानी का काम नहीं है। दयानन्द यदि मूर्ति को नहीं मानते होते तो अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में अग्निहोत्र समझाने के लिये थाली, चम्मच आदि के चित्र खींचकर अपने भक्तवर्ग को समझाने का प्रयत्न क्यों करते ? जो बात एक साधारण चित्रकार भी समझ सकता है, उसे समझने के लिए उनके विद्वान् कहलाने वाले शिष्य भी क्या असमर्थ थे ? तो फिर महान् ईश्वर तथा उसका स्वरूप, ईश्वर की मूर्ति बिना वे किस प्रकार समझ सकते थे ? स्वामीजी की तस्वीर उनके भक्तों द्वारा स्थान-स्थान पर रखने में आती है। यदि ऐसे संसारस्थित व्यक्ति की भी तस्वीर के रूप में रहने वाली मूर्ति के दर्शन से स्वार्थ साधा जा सकता है, ऐसा मानते हो तो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा गुरु के भी गुरु ऐसे परमेश्वर की मूर्ति के दर्शन आदि से स्व- इष्ट नहीं साधा जा सके, ऐसा कैसे माना जा सकता है ? आर्यसमाजी भी अग्नि को पूजते हैं। उसमें घी आदि डालकर होम करते हैं तो क्या वह अग्नि उनकी दृष्टि में जड़ नहीं है ? सूर्य के सामने खड़े रहकर 'ईश्वर - प्रार्थना करते हैं तो वह सूर्य आदि क्या जड़ नहीं है ? तब फिर परमेश्वर की मूर्ति से दूर क्यों भागते हैं? मूर्ति कृत्रिम है और सूर्य, अग्नि आदि कृत्रिम नहीं, ऐसा कहते हो तो उनके गुरुओं का वेश कृत्रिम हैं या अकृत्रिम ? शास्त्र कृत्रिम है या अकृत्रिम ? उनको आदर कैसे देते हो ? अतः जो वस्तु . पूजनीय है वह चाहे कृत्रिम हो या अकृत्रिम उसको पूजना ही चाहिए, ऐसी सबके अन्तःकरण की पुकार है। इस प्रकार प्रत्येक पंथ के अनुयायी अपनी-अपनी पूजनीय वस्तुओं के आकार की किसी-न-किसी ढंग से पूजा करते ही हैं। इससे प्रतीत होता है कि मूर्तिपूजा बालक से लगाकर पण्डित तक सभी को मान्य है। प्रश्न 37 - गुरु साक्षात् रूप में उपदेश देते हैं वैसे मूर्ति कभी उपदेश नहीं देती अथवा देने वाली नहीं तो फिर साक्षात् गुरु को छोड़कर जड़ मूर्ति की उपासना करने से क्या लाभ? उत्तर - सबसे पहले यह समझना चाहिए कि गुरु भी उपदेश किसको दे सकते हैं? जो शून्य हृदय वाले हैं, उन्हें गुरु भी उपदेश कैसे दे सकते हैं ? गुरु का उपदेश समझने के लिए जैसे पहले शास्त्राभ्यास करना पड़ता है तथा समझने की शक्ति प्राप्त करनी पड़ती है। और बाद में ही वह समझा जाता है, वैसे ही मूर्तिपूजा के लिए भी जिसकी मूर्ति की पूजा करनी हो उसके गुणों का स्वरूप समझकर फिर उसकी पूजा की जाय तो लाभ क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। फिर - 'गुरु उपदेश देते हैं व मूर्ति उपदेश नहीं देती' - इस कारण ही यदि गुरु 100
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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