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उपदेश-प्रासाद - भाग १
४२३ वहाँ पर एक दिन एक तापसी आयी । रात्रि में स्व शील के भंग से भय-भीत हुए तापस ने इस प्रकार से उसे शिक्षा दी- हे तापसी ! तुम रात्रि के समय मठ के दोनों कपाटों को अत्यंत दृढ़ कर सोना । रात्रि में यहाँ राक्षस आता है और वह स्त्री का भक्षण करता है । वह मेरे वचन से तुमसे आलाप करेगा, चिह्न कहेगा, परंतु तुम कपाट को उद्घाटित मत करना, उद्घाटित करोगी तो वह तुम्हारे देह को ग्रसित करेगा। इस प्रकार से कहकर तापस मठ के बाहर सोया । अर्ध रात्रि के समय उसके शरीर में काम उद्दीप्त हुआ । अनेक विलापों को कर मध्य में प्रवेश करने के लिए द्वार की मूषा के मध्य में बार-बार मुख कोड रते हुए मृत हुआ । शील के अखंडन से वह देव हुआ । प्रातःकाल नाकर और सभी को स्व स्वरूप कहकर उसने मैथुन का निषेध।। । तथा विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि
वा में गंगा के तट पर नन्द तापस ने बहुत वर्ष तक तप किया । एक र गंगा में स्नान करती हुई स्त्री को देखकर वह मोहित हुआ । उसर्वे पीछे उसके गृह गया और उससे प्रार्थना की । स्त्री ने कहा कि- हे वामी ! मैं चांडाली हूँ और तुम तपस्वी हो । आपको व्रत का खंडन योग्य नहीं है । इस प्रकार से उसके वचन की अवगणना कर काम से पीड़ित हुए तापस ने उसके साथ क्रीड़ा की, पश्चात् दोनों नेत्रों को उद्घाटित कीये । पश्चात्ताप-पर हुआ शिला के ऊपर स्व सिर को टकराकर मृत हुआ, क्योंकि
श्रीराम, राम ! मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार हो, जिससे मैंने चिर समय तक दुश्चर तप से तप कर चांडाली के संगम को किया है । तथा मौनीन्द्र शासन में भी
जैसे किंपाक फलों का परिणाम सुंदर नहीं है, वैसे ही भोगें हुए भोगों का परिणाम सुंदर नहीं है ।
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