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________________ ३०६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ आहार, पान का व्यवच्छेद, यह पञ्चम अतिचार हैं। कोई प्रश्न करतें है कि- ये वध आदि अतिचार क्यों हैं ? मलिनता के अभाव से उनका ग्रहण नहीं होने से और अंगीकार की हुई विरति के अखंडितपने से अतिचारों की उत्पत्ति नहीं हैं। यहाँ पर उत्तर देते है कि- मुख्यता से प्राणातिपात का ही प्रत्याख्यान किया गया है न कि वध आदि, लेकिन उनमें प्राणातिपात का हेतु होने के कारण से परमार्थ से वें भी प्रत्याख्यान कीये गये ही जानें । यदि इस प्रकार से हैं तो नियम का पालन नहीं करने से उनके करने में व्रत-भंग ही हैं, न कि अतिचार । ऐसा नहीं हैं, व्रत दो प्रकार से हैं- अन्तर्वृत्ति से और बाह्य वृत्ति से । वहाँ पर जब कोप आदि के आवेश से वध आदि में प्रवर्तन करता हैं, तब दया के शून्य से व्रत अन्तर्वृत्ति से भग्न हुआ और स्व-आयु तथा अत्यंत बलत्व आदि से जन्तु के मृत नहीं होने से बहिर् वृत्ति से पालन हुआ, उससे भंग-अभंग रूप अतिचार हैं । जैसे कि कहा भी हैं कि- मैं नहीं मारूँगा इस प्रकार से व्रत करनेवाले को मृत्यु के बिना ही यहाँ पर कौन-सा अतिचार हैं ? इस प्रकार की आशंका से उत्तर को कहते हैं कि- जो क्रोधित हुआ वध आदि को करता है, वह नियम की अपेक्षा रहित हुआ । उसे मृत्यु के अभाव से नियम हैं और कोप तथा- दया-हीनता से भग्न हुआ। देश के भंग से और अनुपालन से पूज्य अतिचार कहतें है । जैसे ये अतिचार न हो वैसे प्रवर्तन करना चाहिए, यह अर्थ हैं। इस व्रत-पालन के विषय में कुमारपाल राजा का वर्णन हैं उदयन मंत्री ने महोत्सव के साथ श्रीहेमचन्द्रसूरि को पाटण में प्रवेश कराया । कभी सूरि ने कहा कि- हे मंत्री ! तुम राजा से रहस्य में कहना कि-रात्रि में उपसर्ग होने से आज आप नूतन रानी के महल में नहीं सोयें । किसने कहा हैं ? इस प्रकार से पूछे तो अत्याग्रह होने
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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